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अरति-कर्म बाँधकर, वह स्वयं के आनंद का ही नाश करता है।
दुष्ट स्वभाववाला मनुष्य अपने आसपास रहनेवाले स्नेही-स्वजनों को मानसिक कष्ट पहुँचाता रहता है। इससे वह 'अरति' कर्म बाँधता है और परिणामस्वरूप वह स्वयं मानसिक अशांति को मोल लेता है।
दुष्ट-परपीड़न के कार्यों में दूसरों को प्रेरित करनेवाला मनुष्य नहीं जानता है कि वह अपने आपकी मानसिक पीड़ा निश्चित कर रहा है। मन की सभी पीड़ाओं का मूल कारण यह 'अरति' नाम का नोकषाय है।
अब, ‘शोक'- नोकषाय के बंधहेतुओं को जान ले। - दूसरे जीवों को रुलाना, - स्वयं शोकाकुल होना, - स्वयं रोना, आँसू बहाना, छाती पीटना... - दूसरों को शोक-संतप्त करना...
इन हेतुओं से शोक-मोहनीयकर्म बंधता है। जब वह कर्म उदय में आता है तब जीव शोकसागर में डूब जाता है।
चेतन, भय-मोहनीय के आश्रवों को जानकर, कुछ लोग क्यों हमेशा भयभीत रहते हैं?' इस प्रश्न का समाधान हो जाएगा!
- दूसरे जीवों को डराने से, - स्वयं भयभीत रहने से, - दूसरे जीवों को त्रास देने से, - निर्दयता से दूसरों के साथ व्यवहार करने से, भय-मोहनीय कर्म बंधता है। 'जुगुप्सा' मोहनीय कर्म, मनुष्य निम्न कारणों से बाँधता है - - साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध संघ की निंदा करने से, - चतुर्विध संघ की जुगुप्सा - घृणा करने से, और - सदाचारों की जुगुप्सा - घृणा करने से।
बाँधा हुआ जुगुप्सा-मोहनीय कर्म जब उदय में आता है तब, बाँधनेवाला मनुष्य स्वयं जुगुप्सनीय बन जाता है! दुनियावाले उसकी जुगुप्सा करते हैं, घृणा करते हैं।
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