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का अति मंद होता है। जिस व्यक्ति का पुरुषवेद का उदय प्रबल होता है, स्त्रीसंभोग की वासना अदम्य होती है... वह चाहते हुए भी ब्रह्मचर्य का पालन नहीं कर सकता है। जब तक ऐसा व्यक्ति संभोग नहीं करता है, उसकी वासना शांत नहीं होती है।
जिस पुरुष का वेदोदय सामान्य होता है, वह तप से अथवा ज्ञान से अपने वेदोदय को शांत कर सकता है। संभोग की इच्छा का शमन कर सकता है। ब्रह्मचर्य का पालन कर सकता है और अविकारी महात्मा बन सकता है।
चेतन; पुरुषवेद के प्रबल उदय से ही नंदिषेण मुनि का, उग्र तपश्चर्या और ज्ञान-ध्यान के बावजूद भी, पतन हुआ था न? परंतु ज्यों ही वेदोदय समाप्त हुआ, पुनः चारित्र ग्रहण कर, वासनाओं पर पूर्ण विजय पाई थी।
दूसरा वेद है 'स्त्रीवेद'। 'स्त्री-वेद' नाम के नो-कषाय से स्त्री को पुरुष के प्रति आकर्षण होता है, पुरुष-संभोग की अभिलाषा उत्पन्न होती है। जैसे पित्त प्रकृतिवाले मनुष्य को मधुर द्रव्य की चाह रहती है।
स्त्री के मन में पुरुष के प्रति शीघ्र कामवासना पैदा नहीं होती हैं, परंतु वासना पैदा होने के बाद शीघ्र शांत भी नहीं होती है! जैसे-जैसे वह पुरुष
का स्पर्श पाती जाती है वैसे-वैसे उसकी संभोग वासना बढ़ती जाती है। स्त्री की वासना वैसी आग है... जो जल्दी बुझती नहीं है।
परंतु जिस महिला का स्त्री-वेद का उदय प्रबल नहीं होता है, उसके मन में पुरुष की इच्छा कभी-कभी ही पैदा होती है। यदि वह बिना संभोग किए तप और ज्ञान से उस इच्छा को शांत करना चाहे, तो कर सकती है। तीसरा वेद नपुंसक वेद है।
यह नोकषाय प्रबल होता है। इसका उदय होता है तब मनुष्य के मन में स्त्री और पुरुष, दोनों के साथ संभोग करने की इच्छा पैदा होती है। इच्छा नहीं, तीव्र अभिलाषा पैदा होती है। दीर्घकाल तक यह अभिलाषा शांत नहीं होती है। स्त्रीसंभोग पुनः पुनः करने पर भी उसको तृप्ति नहीं होती है।
चेतन; प्रत्येक संसारी जीव, किसी न किसी एक वेद के उदय का अनुभव करता है। यानी प्रत्येक जीव में यौन-वासना कम या ज्यादा प्रमाण में होती ही है।
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