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माँ का दिल
७६
'मुहूर्त तो निकलवाता ही हूँ... पर अपनी पुत्रवधू के लिए महाराज एवं महारानी को बताना तो चाहिए ही न।'
'वह मैं आज ही निपटा लूँगी।'
'तो मैं अमर को बुलवाकर ... कुछ बातें कर लूँगा । उसे विदेश जाना है.... उसे मुझे कुछ सतर्कता बतानी होगी, जिससे उसकी यात्रा सफल हो... और वह सकुशल लौट आए । '
राजमहल जा रही हूँ।'
‘ज़रुर! आप उसके साथ बातें करें... मैं धनावह सेठ का मन प्रफुल्लित हो उठा। सेठानी वस्त्र परिवर्तन करके सुरसुंदरी को साथ लेकर रथ में बैठकर राजमहल की ओर चली ।
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जब सुरसुंदरी राजमहल में पहुँची, रानी रतिसुंदरी ने उसे अपने अंक में भर लिया। वह फफक-फफककर रो दी। सुरसुंदरी भी रो पड़ी। सेठानी धनवती माँ-बेटी को अकेला छोड़कर भारी मन से वापस आयी ।
‘बेटी, ‘रतिसुंदरी का स्वर काँप रहा था, मैं तुझे ऐसा तो कहूँ भी कैसे कि तू विदेश मत जा । पत्नी को तो पति की छाया बनकर ही जीना चाहिए। उसमें ही उसका सुख निहित है । पर तेरी जुदाई की कल्पना मुझे रुला रही है..... यह तो विदेश की यात्रा... न जाने कितने महीने ... कितने बरस बीत जाएँ, कब वापस लौटना हो ... क्या पता ?'
सुरसुंदरी को सूझ नहीं रहा था कि वह क्या जवाब दे । वह खामोश थी । रतिसुंदरी ने उसके सिर पर अपना हाथ फेरते हुए कहा :
'मुझे तेरे संस्कारों पर पूरा विश्वास है, फिर भी तेरे प्रति प्रगाढ़ स्नेह है न ? इसलिए कह रही हूँ कि ... 'बेटी जान से भी ज्यादा अपने प्रतिव्रत को समझना। अपने दिल में शील का ध्यान रखना । शायद कभी कोई संकट भी आ जाए तो निर्भय होकर श्री नमस्कार महामंत्र का ध्यान करना । एकाग्र मन से जाप करना। महामंत्र के प्रभाव से तेरे सभी संकट टल जाएँगे । विपत्तियों के बादल छँट जाएँगे । '
गृहस्थ-जीवन में पति की प्रसन्नता ही स्त्री का परम धन है । इसलिए अमरकुमार को प्रसन्न रखना। सुबह उनके जगने से पहले तू जाग जाना । उसकी आवश्यकताओं का पूरा और प्रथम ध्यान रखना । कभी भी उन को नाराज़ मत करना... उनका अनादर न हो, इसकी सावधानी रखना ।
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