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एक अस्तित्व की अनुभूति
२८० दोनों ने आपस में क्षमायाचना कर ली... सुरसुंदरी ने अमरकुमार से कहा : 'नाथ, प्रभात में मैं 'विमलयश' होऊँगी... महाराजा को आपका सच्चा परिचय देना होगा | मेरा भेद भी उनके समक्ष खोलना होगा । गुणमंजरी को भी सारी परिस्थिति का परिचय देना होगा!'
'और नगर में भी तो सबसे मिलना होगा न? मुझे चोर से साहुकार बनाना होगा न?' ___ 'हाँ... वह आरोप भी उतारना होगा...!!' दोनों हँस दिये मुक्त मन से।
सुरसुंदरी ने पद्मासन लगाकर रूपपरिवर्तिनी विद्या का स्मरण किया। वह पुरूष रूप में बदल गयी... उसने वस्त्र-परिवर्तन कर लिया।
प्राभातिक कार्यों से निपटकर, अमरकुमार के साथ दुग्धपान करके विमलयश महाराजा गुणपाल से मिलने के लिए राजमहल पहुँचा | महाराजा भी प्राभातिक कार्यों से निपटकर बैठे हुए थे। विमलयश ने महाराजा को प्रणाम किया और उनके समीप बैठ गया।
'उस परदेशी सार्थवाह की बात तो मुझसे गुणमंजरी ने की! चोर निकला साहुकार के भेष में! 'महाराजा, मैं उसी विषय में आप से बात करने आया हूँ।' 'कहो... और क्या विशेष समाचार है उस चोर के बारे में?'
'वह सचमुच चोर नहीं है...। मैंने जान-बूझकर उसे 'चोर' के रूप में पकड़वाया है... मेरे यहाँ चोरी हुई ही नहीं है!!'
'ऐसा क्यों? क्यों इस तरह करना पड़ा?'
'चूंकि उस परदेशी सार्थवाह ने मुझे बारह साल पहले धोखा दिया था। मुझे दुःख दिया था...।'
'तब तो उसे कड़ी सज़ा देनी चाहिए | मैं स्वयं करूँगा उसे सजा ।' 'सज़ा तो मैंने दी है। उसने क्षमा भी माँग ली है... महाराजा, वह मेरा स्वजन है... | मैं छद्मवेश में हूँ... सचमुच मैं पुरूष नहीं हूँ... स्त्री हूँ...!'
महाराजा गुणपाल तो ठगे-ठगे से रह गये!! 'क्या बोल रहा है तू विमल?...' महाराजा विमलयश की ओर देखते ही रहे । 'कुछ समझ में नहीं आ रहा है... विमल... तू कुछ साफ़-साफ़ बात कर ।'
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