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सुर और स्वर का सुभग मिलन लाऊँ तो! यदि शादी होगी तो हम दोनों एक माह तक निर्मल ब्रह्मचर्य का पालन करेंगे।' __ तुझे मैं लिवा लाया सुरक्षित! मुझे अपनी प्रतिज्ञा का पालन करना चाहिए न?' ___ गुणमंजरी ने विमलयश की आँखों में आँखें डालते हुए देखा...! उसने उन
आँखों में निर्मलता... पवित्रता का तेज देखा...| प्यार की खुश्बू देखी... और गुणमंजरी के अंग-अंग में पवित्रता की एक लहर-सी उठी। उसकी देहलता कंपित हुई... वह बोली :
'जो आपकी प्रतिज्ञा वही मेरी प्रतिज्ञा, मेरे नाथ! एक माह देह से अलग रहेंगे, पर दिल से तो कोई जुदा, नहीं कर सकता मुझे!'
विमलयश की आँखें खुशी के मारे छलक आयीं। गद्गद् स्वर में उसने कहा : 'मंजरी, सचमुच तू महान है...।'
'मुझे महानता देनेवाले तो आप ही हे मेरे प्राणनाथ! आपको पाकर मैं कृतार्थ हो गई हूँ। मेरा जीवनस्वप्न साकर बन गया, मैं कितनी खुश हूँ...! आप मेरे सर्वस्व हें। 'मंजरी, तुझे वीणावादन सुनना अच्छा लगता है न?' 'एकदम!! आज दिन तक तो दूर ही से केवल ध्वनि सुनती थी... अब से तो... आज तो दर्शन और श्रवण दोनो मिलेंगे, धन्य हो जाऊँगी!'
'देवी... संगीत के सहारे हम अपने प्रेम को दिव्य तपश्चर्या में ढाल देंगे...। अपना प्रेम आत्मा से आत्मा का, दिल से दिल का प्रेम बनेगा। देह और इंद्रियों के अवरोधों को दूर करके दिव्य प्रेम का सेतु बनाएँगे, हम अपने बीच द्वैत भाव नहीं रहने देंगे।
गुणमंजरी के सुंदर, सुकुमार नयन अचल श्रद्धा से विमलयश को निहारने लगे। फिर भी वह सब क्या था? एक भोली हिरनी-सी पत्नी के साथ छलावा! विमलयश के दिल में मौन पीड़ा की कसक गहराने लगी। वह खड़ा हुआ... और अपनी वीणा को उत्संग में लेकर गुणमंजरी के सामने बैठ गया ।
वीणा के तार झंकार कर उठे। सुरावली की लहरें हवा के साथ-साथ आंदोलित होने लगी। वीणा के तारों पर उसकी ऊँगलियाँ जैसे स्वरों की गुलछड़ी बन गयी... और उस सुरावली के साथ लावण्यपुंज सी गुणमंजरी के
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