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राजमहल में
२१४ ___ मालती खुशहाल थी... चूँकि उसने विमलयश का बड़ा कार्य कर दिया था। सवा लाख रूपये का पंखा बेचकर उसने विमलयश के सामने रूपयों का ढेर लगा दिया था।
विमलयश ने दूसरे दिन नित्यकर्मसे निवृत्त होकर मालती को अपने पास बुलाया... और उसे पच्चीस हज़ार रूपये भेंट दे दिये। उस वक्त मालती को विमलयश में 'भगवान' का दर्शन हो गया। वह भावविभोर होती हुई विमलयश के चरणों में लोट गयी : ___ 'ओ परदेशी राजकुमार, क्या तू कर्ण का अवतार है? तूने तो मेरे जनमजनम की दरिद्रता दूर कर दी। बोल, मैं तेरा क्या प्रिय करूँ? तू जो कहे सो करने को तैयार हूँ।' विमलयश हँस पड़ा।... उसने कहा : 'मालती, भूख सता रही है... तेरे केसरिया दूध की खुशबू बता रही है कि...' मालती झेंपती हुई दौड़ी... और घर में जाकर दूध का प्याला भर लायी। विमलयश ने दूध पी लिया। प्याला मालती को देते हुए कहा : ___ 'मालती... मान या मत मान, आज कोई न कोई अच्छी घटना होनी चाहिए । आज मेरा मन अव्यक्त आनंद से छलकने लगा है।'
'तो क्या मुझे आज कोई जादुई पवन-पाँवड़ी देकर बेचने के लिए चौराहे पर भेजने का इरादा है क्या? मालती ने विमलयश के सामने देखते हुए मुस्कान बिखेरी। __ 'नहीं... बाबा नहीं... अब मालती को चौराहे पर थोड़े ही भेजने की है? अब मैं उसे अपने साथ राजसभा में ले जाऊँगा। आएगी न मालती, मेरे साथ?'
'अरे, राजसभा में क्या? तुम कहो तो इन्द्रसभा में भी चली आऊँ तुम्हारे साथ।' 'फिर ये तेरा आदमी क्या करेगा बेचारा?' ये पच्चीस हज़ार रूपये मिले हैं न?... खायेगा, पियेगा और मौज मनायेगा...।' दोनों खिलखिलाकर हँस पड़े।
मालती की निगाह बगीचे के द्वार पर गिरी... और वह तपाक से खड़ी हो गयी... उसने घूरकर देखा और बोल उठी :
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