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विदा, मेरे भैया ! अलविदा, मेरी बहना !
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राजा की प्रिय बहन को विदा देने के लिए एकत्र हुए थे। सब ने गीली आँखों और भर्रायी आवाज में सुरसुंदरी को विदा किया ।
सुरसुंदरी विमान में बैठी ।
रत्नजटी ने अपने दिल को पत्थर बनाकर विमान को आकाश में ऊपर उठाया, नगर पर एक-दो तीन परिक्रमाएँ दी और बेनातट नगर की दिशा में तीव्रगति से घूमा दिया ।
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रत्नजटी ने बेनातट के बाह्य उद्यान के एकांत कोने में विमान को उतारा । सुरसुंदरी को सम्हालकर नीचे उतारा। रानियों द्वारा विमान में रखे हुए वस्त्रालंकार वगैरह भी उसने बाहर निकालकर सुरसुंदरी के पास रखे ।
रत्नजटी ने सुरसुंदरी के सामने देखा । सुरसुंदरी ने भी रत्नजटी के तरफ भरी-भरी आँखों से देखा । 'बहन... कैसे वापस लौटूं? मेरे पैर नहीं उठ रहे हैं। इतने दिन सुख में, आनंद में... बीत गये... तू तो दिल में बस गयी हो.... बहना। न जाने अब वापस कब तेरे दर्शन होंगे ? तब तुझे देख पाऊँगा? तेरे साथ इतनी तो गहरी प्रीति बँध चुकी है कि आज तक तुझे देखकर तन-मन प्रसन्नता से पुलक उठते थे । अब ? ठंडी आहों के अलावा अब और क्या बचा है? बहन, वे दिन कैसे भूलेंगे? ये दिन कैसे गुज़रेंगे? सब याद आयेगा और आँखें बरसा करेंगी... तेरे साथ की हुई तीर्थयात्रा... तेरे साथ गुजारे हुए तत्त्वचिंतन के क्षण... तेरे मीठे - मधुर बोल... तेरा निर्दोष मासूम चेहरा, सब यादें फरियाद बनकर मेरे दिल को चूर-चूर कर डालेगी ! और जब भोजन के समय तुझे नहीं देखूँगा... सोच बहन ! मेरा क्या होगा ? तेरी उन भाभियों पर क्या गुजरेगी? वे तड़पती रहेंगी...!!
प्रीत का सुख तो सपना बनकर बह गया...! अब तो दुःख का अंतहीन समुद्र ही रह गया... हमारे लिए! ज्यादा क्या कहूँ मेरी बहन ! सोचता हूँ कहीं तू अपने इस अशांत, संतप्त और व्यथित भाई को भूला मत देना... नहीं बहन... भूलाना मत। कभी याद करके साल में एकाध बार तो तेरी कुशलता का संदेश ज़रूर ज़रूर भिजवाना !'
रत्नजटी के दिल का बाँध टूटा जा रहा था। उसके आँसू सुरसुंदरी के दिल में आग लगा रहे थे । सुरसुंदरी ने अपने आँचल के छोर से रत्नजटी की आँखें पोंछी ।
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