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विदा, मेरे भैया ! अलविदा, मेरी बहना !
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एकाध घटिका में तो विमान पहुँच गया, सम्मेतशिखर पर्वत पर! सभी ने भक्तिभावपूर्वक तीर्थयात्रा की। उन्होंने जिन पूजन किया । परंतु यात्रा के दौरान रत्नजटी बिलकुल खामोश रहा। उसका विषाद बर्फ हुआ जा रहा था । विमान वापस सुरसंगीतनगर में आ पहुँचा। रत्नजटी अपने आवास में चला गया चुप्पी साधे हुए। रानियाँ भी सुरसुंदरी के साथ अपने - अपने कक्ष में चली गयीं
भोजन का समय हो गया था । सुरसुंदरी ने रत्नजटी को भोजन करवाया । निगाह ज़मीन पर रखे रत्नजटी ने भोजन कर लिया। रानियों ने भी सुरसुंदरी के साथ बैठकर भोजन किया ।
दिन ढलने लगा। रात छाने लगी, पर बैचेनी का साया पूरे महल पर इस कदर छाया हुआ था... कि स्याह रात ढल गयी पर उदासी का अंधेरा और ज्यादा गहराने लगा। अब सुरसुंदरी इस महल में केवल एक दिन और एक ही रात रहनेवाली थी ।
प्राभातिक कार्यों से निवृत्त होकर रत्नजटी स्वयं सुरसुंदरी के कक्ष में गया । सुरसुंदरी खड़ी हो गयी । रत्नजटी का मौन स्वागत किया । रत्नजटी को आसन पर बिठाकर स्वयं जमीन पर बैठ गयी। 'बहन...' रत्नजटी की आँखों में आँसू उभरने लगे....
‘बोलो भैया...' सुरसुंदरी भी अपने आप पर काबू पाने की कोशिश कर रही थी ।
'नहीं जानता हूँ तेरी जुदाई की पीड़ा कैसे सहन कर पाऊँगा ! पर कल तुझे बेनातट नगर में पहुँचाना तो है हीं !
बहन... मैं तेरी कुछ भी सेवा नहीं कर पाया हूँ। तू तो पुण्यशीला है.... गुणों की जीवंत मूर्ति है । मेरी यदि कोई गलती हुई तो मुझे माफ करना.... बहन। और... बहन तेरे भाई से कुछ माँग ले... भाई से माँगने का तो बहन को अधिकार है।'
सुरसुंदरी की आँखे बरबस बहने लगी। उसने अपने उत्तरीय वस्त्र से आँखें पोंछी और भर्रायी आवाज में बोली :
'मेरे भैया, तेरे गुणों का तो पार नहीं है... तेरी स्नेह भरी संगति में नौ-नौ महिने कहाँ गुजर गये पता ही नहीं लगा ! यहाँ पर मुझे सुख ही सुख... केवल सुख मिला है, दुःख का नामोनिशान नहीं है। फिर भी मैं वे चार विद्याएँ तुमसे सीखना चाहती हूँ जो मेरी भाभियों ने मुझे दी हैं । '
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