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प्रीत किये दुख होय
१८६ हज़ारों रानियाँ थी, फिर भी वह सीता के रूप में पागल बना था न? पुरूष का मन ही कुछ ऐसा विचित्र है। वह अपने वैषयिक सुखों की लालसा के लिए नये-नये रंग-रूप खोजने में भटकता रहता है। रत्नजटी इसका अपवाद नहीं था। फिर भी वह अपने मन में पूरी तरह जागृत था।
वह समझता था कि कर्म-परवश जीव के विचार हमेंशा एक से स्थिर नहीं रह सकते! कभी विचारों की दुनिया में पवित्रता के फूल महकते हैं, तो कभी विचारों की व्योम में वासनाओं की चीलें मँडराने लगती हैं। रत्नजटी जानता था कि मनुष्य अपने मन को संयत रख सकता है... पर कभी वह संयम का बाँध मिट्टी का ढेर साबित होता है... विचारों का उफनता एवं उछलता प्रवाह उस बाँध को तहस-नहस कर डालता हैं। ___ अनेक बार पिता मुनिराज के धर्मोपदेश में उसने सुना था कि बड़े-बड़े संयमधारी ऋषि-मुनि भी स्त्री का निमित्त पाकर वैचारिक एवं शारीरिक पतन के गर्त में फँस पड़े हैं। उसने यह सुनकर अपने आप की उनसे तुलना भी की थी... उन उग्र तपस्वी एवं संयमी मुनियों के मनोनिग्रह की तुलना में मेरा मनोनिग्रह तो क्या बिसात रखता है? ऐसे मुनि कि जो साधना के शिखर पर थे, अध्यात्म की ऊँचाईयों पर आसीन थे, उन्होंने जब अपना मनोनिग्रह खो डाला... किसी एकाध निमित्त को पाकर... फिर मैं हूँ कौन? मुझे ऐसे पतन के निमित्त से बचना चाहिए। दूर ही रहना चाहिए |
इस सावधानी को उसने अपने जीवन में स्थान दिया था। इसलिए तो उछलती-जवानी और ढेर सारी संपत्ति होने पर भी राजा रत्नजटी का जीवन पूरी तरह निष्कलंक था... वह अपनी रानियों के प्रति वफादार था। किसी भी परस्त्री से उसने संपर्क नहीं रखा था। किसी भी युवती या स्त्री के साथ उसने आत्मीयता का नाता बाँधा नहीं था। सदाचार का वह सतर्कता से पालन करता था। वचन पालन एवं वफादारी जैसे मानवीय गुणों की भरपूर फसल उसकी जीवनधरा पर उगी थी।
उसने अपने राज्य में भी मानवीय गुणों का श्रेष्ठ प्रचार एवं प्रसार किया था । प्रजाजनों में मानवता के गुण... नैतिकता के फूल खिले रहें... इसके लिए वह सदैव प्रयत्नशील रहता था। वैसे भी बाह्य सुख-शांति एवं समृद्धि का विद्याधरों की दुनिया में पार नहीं रहता है, पर रत्नजटी के राज्य में तो भीतरी सुख-समृद्धि भी अपार थी।
सुरसुंदरी तो सहसा रत्नजटी की जिंदगी में आ गयी थी। भारंड पक्षी की चोंच में से निकलकर जमीन पर गिरती हुई उस युवती को उसने अपने
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