________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
आखिर 'भाई' मिला!
१४८ 'हाँ.... हाँ... भली-भाँति जानती हूँ, मैं चोर-लुटेरों के सरदार से बात कर रही हूँ...'
'तुझे मेरी बात माननी होगी...।' 'नही मानूँगी तो?' 'इसका परिणाम बुरा होगा...' 'परिणाम की परवाह मैं नहीं करती।'
'तब मुझे जबरदस्ती तुझ पर काबू पाना होगा... | मैं तेरे रूप को कुचल डालूँगा अपने हाथों...' और पल्लीपति सुरसुंदरी को अपने बाहों में भरने के लिए आगे बढा... पर सुरसुंदरी चार-छह कदम पीछे हट गयी...। ___'तू मेरे शील को नहीं लूट सकता, पागल... जहाँ खड़ा है वहीं खड़ा रहना... वरना।'
'ओहो... मेंढकी को भी जुकाम होने लगा... अरी क्या बिगाड़ लेगी तू मेरा?' 'मैं क्या करूँगी, यह जानने की तुझे बेसब्री है?'
'हो... हो... हो... यहाँ पर राजा मैं हूँ... मै जो चाहूँ वह यहाँ पर होगा...। सीधे ढंग से मेरे वश में हो जा... नहीं तो मुझे हारकर इस सुंदर मुखड़े को खून से नहलाना होगा... हूँ हूँ... समझती क्या है, छोकरी! मैं तेरा सर उतारकर रख दूंगा धड़ पर से!'
'ऐसा डर किसी और को दिखाना... कायर! यदि ताकत हो, तो उठा तलवार और कर प्रहार!'
'अच्छा? इतनी हिम्मत तेरी?' 'अरे... बकबक किये वगैर हथियार उठाकर कुछ कर दिखा, ओ डरपोक!'
पल्लीपति का गुस्सा आपे से बाहर हो गया...। वह तलवार खिंचकर सुरसुंदरी की तरफ लपका।
सुरसुंदरी, आस-पास के वातावरण से अलग हटकर श्री नवकार महामंत्र के ध्यान में लीन हो गयी...| उसके इर्दगिर्द प्रखर-प्रकाश का एक वर्तुल खड़ा हो गया! कुछ पल बीते-न-बीते इतने में तो एक दिव्य आकृति प्रकट हुई... __ पल्लीपति तो हक्का-बक्का रह गया। उसके हाथ में उपर उठी तलवार ज्यों-की-त्यों धरी रह गयी। दिव्य आकृति आगे बढ़ी... पल्लीपति के सीने पर कड़ा प्रहार किया। और एक दिव्य आवाज उभरी :
For Private And Personal Use Only