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फिर सपनों के दीप जले!
१०२ ___ 'तुम्हारी बात मुझे मंजूर हैं। तुम चलो मेरे साथ, यहाँ हम को जल्दी-जल्दी निकलना है।'
'तो मैं उपवन में जाकर अभी वापस आती हूँ... तुम मेरी प्रतीक्षा करोगे न?' 'बिलकुल । तुम जाओ... अपना जो कार्य निपटाना हो निपटाकर चली आओ।' 'तुम्हारा बड़ा एहसान!' सुरसुंदरी ने श्रेष्ठी को सिर झुकाकर प्रणाम किया और जल्दी-जल्दी चलती हुई वह उपवन में आ पहुँची। चूँकि उसे यक्षपिता की इज़ाजत लेनी थी। __ जैसे ही वह उपवन में प्रविष्ट हुई कि यक्षराज प्रगट हुए और बोले : 'बेटी... आज तू चली जाएगी न?'
'जी हाँ, एक सहारा मिल गया है... एक सेठ जहाज़ लेकर सिंहलद्वीप की ओर जा रहे हैं।' 'मैं जानता हूँ...' 'मैं आपकी इजाज़त लेने के लिए आयी हूँ।' 'मेरी अनुमति है... पर! 'परंतु क्या, यक्षराज?' 'समुद्री यात्रा है... साथी भी अनजान है... इसलिए पूरी सजग रहना बेटी।' यक्षराज की आवाज गीली हो गयी। 'आपका हाथ मेरे सिर पर है... फिर मुझे चिंता काहे की?'
'बेटी... दरअसल में चाहने पर भी मैं तेरे साथ नहीं रह सकता। तू जब इस द्वीप को छोड़कर आगे बढ़ेगी... तब मैं तुझे न तो देख सकूँगा, न ही सहायक बन सकूँगा, चूंकि मेरा अवधिज्ञान इस द्वीप तक ही सीमित है।'
"ठीक है... पर आपके अतःकरण के आशीर्वाद तो मेरे साथ हैं न? फिर... श्री नवकार महामंत्र तो मेरे दिल में है ही। उसके अचिंत्य प्रभाव से मेरा शील सुरक्षित ही रहेगा।' ___ 'ज़रूर-ज़रूर, बेटी! महामंत्र नवकार तो सदा तेरी रक्षा करेगा ही। मुझ जैसे क्रूर दिल के यक्ष को जिस महामंत्र ने बदल दिया... वह महामंत्र तो अद्भुत है।' 'आप मुझे आशीर्वाद दें... ताकि मैं किनारे पर पहुँच जाऊँ।'
'मेरे दिल के तुझे अनंत-अनंत आशीर्वाद हैं, बेटी। प्रसन्न मन से यात्रा करना। तुझे बहुत जल्द तेरे पति का संयोग हो जाए, यही मेरी दुआ है।'
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