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पत्र १०
७२ ।। । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । ० परमात्मपूजन के लिए मंदिर जाना है, परन्तु शुष्क हृदय से, मूढ़ मन
से नहीं जाना है। हृदय हर्ष से रोमांचित हो, शरीर में स्फूर्ति हो और
मंदिर की ओर आगे बढ़ो। ० मंदिर में संसार की क्रियायें नहीं करने की हैं, संसार की बातें नहीं
करने की हैं और संसार के विचार भी नहीं करने के हैं। ० परमात्मपूजन से अशान्त मन शान्ति पाता है, उद्विग्न चित्त हर्षान्वित
होता है। ० कुछ कदाग्रही लोग रागी-द्वेषी देवों के मंदिर में जाते हैं, पीर-फकीर की ___मजारों पे जाते हैं.... परन्तु वीतराग तीर्थंकर के मंदिरों में नहीं जाते! । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । पत्र : १०
श्री सुविधिनाथ स्तवना
प्रिय चेतन, धर्मलाभ!
भक्तियोग में तेरी गति-प्रगति जानकर मन प्रसन्न हुआ। आर्तध्यान और रौद्रध्यान से ज्यों-ज्यों मन मुक्त होता जायेगा, त्यों-त्यों धर्मध्यान में विशेष स्थिरता प्राप्त होगी।
श्री चन्द्रप्रभस्वामी की स्तवना में तो श्री आनन्दघनजी ने परमात्ममिलन की तीव्र अभिलाषा अभिव्यक्त कर दी। परन्तु परमात्मा का जैसा मिलन वे चाहते हैं, वैसा मिलन इस भरतक्षेत्र में अभी कहाँ संभव है? अभी...भगवान महावीरदेव के निर्वाण के बाद...कोई भी तीर्थंकर इस भरतक्षेत्र में हुए नहीं और आगे हजारों वर्ष तक होंगे भी नहीं। ___ महाविदेह क्षेत्र में सदाकाल तीर्थंकर होते ही हैं. इस समय भी वहाँ २० तीर्थंकर भगवंत हैं, परन्तु यहाँ से वहाँ जाना संभव नहीं है। यहाँ का कोई वायुयान भी वहाँ नहीं जा सकता। ऐसी परिस्थिति में, परमात्मा का नाम और परमात्मा की मूर्ति ही प्रीति-भक्ति के माध्यम बनते हैं। परमात्मा का पूजन कैसे करना चाहिए, वह श्री सुविधिनाथजी की स्तवना में बताया है।
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