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पत्र ९ प्रेरक अवसर जिनवरु... सखी,
मोहनीय क्षय जाय... सखी, कामित पूरण सुरतरु... सखी,
आनन्दघन प्रभु पाय... सखी! देखण दे... परमात्मदशा प्राप्त करने को लालायित आत्मा, परमात्मस्वरूप का दर्शन पाने के लिए कितनी तत्पर होती है, वह तत्परता इस स्तवना में दिखाई देती है। योगीश्वर श्री आनन्दघनजी अपनी ही चेतना को 'सखी' कह कर पुकारते हैं। सखी यानी सहेली।
हे सखी, अब तो मुझे चन्द्रप्रभस्वामी का मुखचन्द्र देखने दे। वह मुखचन्द्र उपशमरस का स्रोत है। उस मुखचन्द्र का दर्शन करने से कलहों का मल दूर चला जाता है, सुख-दुःख के द्वन्द्व मिट जाते हैं...अन्तःकरण शान्तसुधा का अनुभव करता है।
यहाँ परमात्मा के मुखचन्द्र का दर्शन करने का अवसर मिला है। बीते हुए अनन्तकाल में ऐसा अवसर नहीं मिला था। 'सुहुम निगोदे न देखियो बादर अतिही विशेष'
चेतन, 'निगोद' शब्द जैन परिभाषा का शब्द है। जीवों की एक विशिष्ट संज्ञा है। सूक्ष्म (सुहुम) निगोद के जीव होते हैं, बादर निगोद के जीव होते हैं। सूक्ष्म निगोद के जीव इतने सूक्ष्म होते हैं कि विशिष्ट प्रत्यक्ष ज्ञानी ही देख सकते हैं, अपन नहीं देख सकते। बादर निगोद के जीव भी समूह में देख सकते हैं, एक...दो...चार को नहीं देख सकते, यानी संख्या में नहीं देख सकते। अनन्त के साथ में ही देख सकते हैं। अपनी आत्मा सर्वप्रथम सूक्ष्म निगोद में थी। वहाँ अनन्तकाल जन्म-मृत्यु पाये...। वहाँ मात्र स्पर्शनेन्द्रिय थी। मन नहीं था, दूसरी इन्द्रियाँ नहीं थी। वहाँ परमात्मा का दर्शन असंभव ही था। इस सृष्टि में सूक्ष्म निगोद के जीवों का 'जीव' रूप में व्यवहार ही नहीं होता है। जब बादर (सूक्ष्म की अपेक्षा कुछ बड़े) निगोद में जीव आता है, तब उसकी संसारयात्रा प्रारम्भ होती है।
वे निगोद के जीव, संसार के दूसरे सभी जीवों से 'अति ही विशेष' होते हैं, यानी बहुत ज्यादा होते हैं, अनन्तगुणा ज्यादा होते हैं।
जहाँ चेतना सुषुप्त होती है, जहाँ मात्र एक ही इन्द्रिय होती है... और
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