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पत्र ९ ।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।। ० श्री चंद्रप्रभ स्वामी की स्तवना के माध्यम से, योगीश्वर आनंदघनजी संसार
परिभ्रमण के प्रारम्भ से... कहाँ-कहाँ जीव भटका है, वह बताते हैं। ० हे सखी! इस मनुष्य जीवन में, जब परिपूर्ण इन्द्रियाँ मिली हैं और
परिशुद्ध मन मिला है, तब परमात्मा की निष्काम भाव सेवा कर लेने
दे! रुकावट मत कर। ० परमात्मा, इच्छाओं को पूर्ण करने वाले कल्पवृक्ष हैं। मेरी इच्छा को वे
अवश्य पूर्ण करेंगे। मेरा मोहनीय कर्म अवश्य नष्ट होगा। । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । पत्र : ९
श्री चन्द्रप्रभ स्वामी स्तवना
प्रिय चेतन, धर्मलाभ!
तेरा पत्र नहीं है | तू कुशल होगा । यहाँ भगवंत ऋषभदेव की शीतल छाया में हमारी संयमयात्रा, ज्ञानयात्रा सानन्द संपन्न हो रही है।
न सा जाइ न सा जोणी न तं ठाणं न तं कुलं ।
न जाया न मुआ जत्थ सव्वे जीवा अणंतसो ।। ऐसी कोई जाति नहीं है, ऐसी कोई योनि नहीं है, ऐसा कोई स्थान नहीं है और ऐसा कोई कुल नहीं है कि जहाँ जीवात्मायें पैदा न हुए हो और मरे न हो! एक-दो बार नहीं, अनन्त-अनन्त बार! __परन्तु चेतन, इस अनन्तकालीन संसारपरिभ्रमण में, वीतराग परमात्मा का दर्शन कब मिलता है? श्री चन्द्रप्रभस्वामी की स्तवना के माध्यम से योगीश्वर आनन्दघनजी संसार-परिभ्रमण के प्रारंभ से.... कहाँ-कहाँ जीव भटका है.... बताते हैं। अपने बीते हुए अनन्त जन्मों की स्मृति.... शास्त्रों के माध्यम से की जा सकती है। ___ श्वास ऊँचा हो जाय.... वैसी अनन्त जन्मों की कहानी है। एक जीव की नहीं, सभी जीवों की। श्री चन्द्रप्रभस्वामी भगवंत की स्तवना के माध्यम से यह कहानी कही गई है।
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