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पत्र ६ अभेदभावात्मक भूमिका पर पहुँच कर, परमात्मा का अचिन्त्य अनुग्रह प्राप्त करने की दिशा में गतिशील होना चाहिए। बहिरातम तजी अंतरआतमा-रूप थई स्थिरभाव, परमातमनुं हो आतम भाववं, आतम-अर्पण दाव!
० बहिरात्मदशा का त्याग करना, ० अन्तरात्मदशा में स्थिर होना, ० आत्मा ही परमात्मा है' - ऐसी भावना से भावित होना। यह है परमात्म-चरणों में समर्पण करने का उपाय ।
बहिरात्मदशा दूर होना, मनुष्य के वश की बात नहीं है। काल-परिपाक होने पर, भवस्थिति का परिपाक होने पर, सद्गुरु का समागम होने पर और परमात्मा का अचिन्त्य अनुग्रह होने पर बहिरात्मदशा दूर होती है। अन्तरात्मदशा प्राप्त होने पर, उस दशा में स्थिरता प्राप्त करने का पुरुषार्थ करना पड़ेगा। ज्ञानयोग और भक्तियोग में निरत रहने से अन्तरात्मदशा में स्थिरता आती है।
जैसे स्थिर पानी में, मनुष्य की स्पष्ट आकृति प्रतिबिंबित होती है, वैसे स्थिर अन्तरात्मदशा में परमात्मा प्रतिबिंबित होते हैं। 'मैं ही परमात्मा हूँ!' आनन्द से आत्मा चिल्लाती है । 'अहं ब्रह्मास्मि'- मैं ही ब्रह्म-परमात्मा हूँ।' यह कथन इस भूमिका पर चरितार्थ होता है।
इसी को समर्पण कहते हैं, श्री आनन्दघनजी। अन्तरात्मा की स्वच्छ, निर्मल.स्थिर अवस्था में परमात्मा का प्रतिबिंब दिखाई देता है, इसलिए अन्तरात्मा बनने का प्रयत्न करें। आतम-अर्पण वस्तु विचारतां भरम टले मतिदोष, परम पदारथ संपत्ति संपजे, आनदघन-रस पोष. __ आत्मसमर्पण की बात, रहस्यभूत बात जब सोचते हैं, तब बुद्धि की भ्रमणाओं की जाल नष्ट हो जाती है। भ्रमणाओं के भूत भाग जाते हैं | कर्तृत्वभोक्तृत्व के भ्रम के परदे उठ जाते हैं। अन्तरात्मा क्षायिक गुणों की संपत्ति प्राप्त कर लेती है। केवलज्ञान-केवलदर्शन-वीतरागता और अनन्त वीर्य प्राप्त हो जाता है। प्रकृष्ट आनन्द-रस की अनुभूति हो जाती है।
परमात्म-चरणों में किया हुआ समर्पण, आत्मा को परमात्मा बनाता ही है |
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