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पत्र ५ दोषरहित आराधना करने के लिए कोई समर्थ मार्गदर्शक करूणावंत महापुरुष चाहिए, वह नहीं मिल रहा है...।
प्रभो, मेरी स्थिति विकट हो गई है। जंगलों में भटकता हुआ 'दर्शन दो... दर्शन दो...' पुकारता फिरता हूँ तो लोग मेरा उपहास करते हैं... कहते हैं 'यह तो जंगल का पशु है...।'
जो कहना हो वे कहें... मुझे इस बात का दुःख नहीं है... यदि जिनेश्वर, आपके दर्शन मिल जाते हैं। परन्तु'जेहने पिपासा हो अमृतपाननी, किम भांजे विषपान...?'
अमृत की प्यास लगी हो... और कोई जहर का प्याला दे दे पीने को, क्या प्यास बुझेगी?
चेतन, 'अमृत' का अर्थ तो तू समझ गया होगा, परन्तु 'विषपान' का अर्थ शायद तू नहीं समझा होगा। कवि को समाज के मान-सम्मान, बाह्य सुखसुविधायें...और शुष्क वाद-विवाद 'विष' लगता है, जहर लगता है। मानसम्मानादि को क्या करें? जिसको परमात्मदर्शन की चाह लगी हो...उसको दुनिया के सारे भौतिक पदार्थ, दुनिया की सारी बातें...जहर जैसी लगती है।
'परमात्मादर्शन के लिए महर्षि क्यों इतने व्याकुल हो रहे हैं?' यह प्रश्न उठता है न तेरे मन में? बताते हैं उसका कारणतरस न आवे हो मरण-जीवन तणो, सीजे जो दरिसन-काज। ___ कवि को पुनः-पुनः संसार में जन्म-मृत्यु नहीं पाना है। उन्होंने 'जन्म-मृत्यु की प्यास' को मिटाने की बात की है। जीवात्मा में अनन्त काल से यह प्यास रही हुई है। यदि परमात्मदर्शन का कार्य संपन्न हो जाय तो प्यास समाप्त हो जाती है। यानी चार घाती कर्मों का नाश होने पर परमात्मदर्शन प्राप्त होता है और जन्म-मृत्यु का चक्र भी समाप्त हो जाता है। परन्तु, परमात्मदर्शन सुलभ नहीं है, दुर्लभ है, यह बताते हुए कहते हैंदरिसन दुर्लभ सुलभ कृपा थकी, आनन्दघन महाराज।
कवि जानते हैं कि परमात्मदर्शन सुलभ नहीं है, परंतु वे यह भी जानते हैं कि दुर्लभ दर्शन को सुलभ कैसे बनाया जाय!
'हे परमात्मन्! हे आनन्द के सागर!
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