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पत्र ५ मत-मत भेदे रे जो जई पूछीए, सहु थापे 'अहमेव'
अलग-अलग मतावलम्बियों से जाकर पूछता हूँ : 'मुझे वीतराग... सर्वज्ञ परमात्मा का दर्शन कहाँ होगा? कृपया बताईये...!' तो वे कहते हैं : 'हम ही वीतराग हैं... हम ही सर्वज्ञ हैं।' मैं उन लोगों को कैसे सर्वज्ञ-वीतराग परमात्मा मान लूँ? जबकि उनकी बातें परस्पर विरोधाभासी हैं और जीवनव्यवहार में संवादिता नहीं है।
स्वमत के उन्माद से उन्मत्त मनुष्य एक सामान्य वस्तु भी नहीं देख सकता है, तो फिर उससे ऐसी अपेक्षा तो कैसे की जाय कि वो सभी बातों का तर्कयुक्त निर्णय दे? क्या कोई अन्ध पुरुष 'यह सूर्य है और यह चन्द्र है, ऐसा विभागीकरण कर पायेगा कि जब वह मदिरापान से उन्मत्त हो? अपने-अपने मतों का जिनको आग्रह होता है वे लोग परमात्मदर्शन का सच्चा मार्ग नहीं बता सकते।
कवि कहते हैं कि 'परमात्मदर्शन पाने का उपाय दूसरों से पूछना व्यर्थ है, और मैंने स्वयं तर्क से, युक्ति से परमात्मा के दर्शन [सर्वज्ञ सिद्धान्त] को समझने का प्रयत्न किया। हालाँकि अनुमान प्रमाण से कुछ बातों का निर्णय हो सकता है, परन्तु अगोचर बातों का निर्णय करने में मुझे एक बड़ी दिक्कत आयी, वह दिक्कत थी 'नयवाद' की । नयवाद को स्पष्टता से समझना मेरे लिए मुश्किल रहा।
चेतन, किसी भी बात को, किसी भी वस्तु को देखने के और सोचने के मुख्य रूप से सात मार्ग बताये गये हैं, उसको नयवाद कहा गया है। नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत-ये सात नय हैं। तू कब करेगा इस 'नयवाद' का अध्ययन? जैन दर्शन की तत्त्वव्यवस्था को समझने के लिए 'नयवाद' और 'अनेकान्तवाद' का अध्ययन करना ही होगा। हालाँकि इन वादों को समझना सरल नहीं है। फिर भी प्रयास तो करना ही चाहिए।
अनुमान-प्रमाण से कवि को परमात्मदर्शन पाना संभव नहीं लगता है, तब वे 'आगम प्रमाण' से 'दर्शन' पाने का सोचते हैं । आगम यानी शास्त्र । एक-दो शास्त्र नहीं हैं, हजारों शास्त्र हैं। इन शास्त्रों के माध्यम से भी 'दर्शन' पाना उनको मुश्किल लगता है, वे कहते हैं :
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