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पत्र ५
अभिनंदन जिन! दरिसन तरसीए, दरिसन दुर्लभ देव, मत-मत भेदे रे जो जई पूछीए, सहु थापे 'अहमेव '... सामान्ये करी दरिसन दोहिलुं, निर्णय सकल - विशेष, मद में घेर्यो रे अंधो केम करे, रवि-शशि-रुप विलेष... हेतु-विवादे हो चित्तधरी जोइये, अति दुर्गम नयवाद, आगमवादे हो गुरूगम को नहीं, ए सबलो विषवाद... घाती-डुंगर आडा अति घणा, तुज दरिसन जगनाथ, धिट्ठाई करी मारग संचरुँ सेंगु कोई न साथ... दरिसण... दरिसण रटतो जो फिरूं, तो रण रोझ समान, जेहने पिपासा हो अमृतपाननी, किम भांजे विषपान ?... तरस न आवे हो मरण - जीवन तणो, सीझे जो दरिसन काज, दरिसन दुर्लभ सुलभ कृपा थकी, आनन्दघन महाराज....
'हे अभिनन्दन! आपके दर्शन के लिए हम तरस रहे हैं। जैसे आषाढ़ी बादलों के बरसने की प्रतीक्षा में मोर केकारव करता रहता है, जैसे चन्द्र की चाँदनी का पान करने की प्रतीक्षा में चकोर पक्षी के नयन अपलक आकाश को ताकते हैं, जैसे हजारों नदियों के एवं महासागर के पानी का सहवास होने पर भी चातकपक्षी बादलों के पानी की प्रतीक्षा करता रहता है... वैसे हे प्रभो, आपके दर्शन के लिए मेरे प्राण तड़प रहे हैं। आपके दर्शन मेरे लिए दुर्लभ बने हुए हैं...।'
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दर्शन! यह शब्द व्यापक है। दर्शन का अर्थ जैसे देखना होता है, वैसे दर्शन का अर्थ ‘सम्यक्त्व' भी होता है और 'मत' भी होता है ।
O कवि-आनन्दघन परमात्मा का प्रत्यक्ष दर्शन [देखना ] चाहते हैं ।
० योगी-आनन्दघन सम्यग्दर्शन [सम्यक्त्व] चाहते हैं,
० तत्त्वज्ञानी-आनन्दघन सच्चा मत-मार्ग देखना चाहते हैं।
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उनको ये तीनों बातें दुर्लभ प्रतीत होती हैं । प्रत्यक्ष दर्शन पूर्णता प्राप्त किये बिना हो नहीं सकता। सम्यग्दर्शन, मिथ्यात्व के बादल बिखरे बिना संभव नहीं होता और सच्चा मार्ग, कोई सुयोग्य पथप्रदर्शक के बिना नहीं मिल
सकता ।