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पत्र ३ ___ आनन्दघनजी फिलहाल प्रभु के पंथ को खोजने का कार्य स्थगित करते हैं
और भविष्य पर उस कार्य को छोड़ देते हैं। वे कहते हैं-'जब मेरी काल-लब्धि परिपक्व होगी... तब मैं तेरे पास आने का मार्ग खोजने निकलूँगा... तब मुझे तेरा मार्ग अवश्य मिलेगा. हे नाथ! मैं इसी आशा का अवलंबन लेकर यहाँ जी रहा हूँ...
मेरा मन तो तुम्हारे पास ही है... यानी आत्मरमणता ही चल रही है... फिर भी मार्ग नहीं मिलने का दुःख मेरे हृदय में है।'
चेतन, अपार निराशाओं के काले बादलों से छाये हुए आकाश में भी 'आज नहीं तो कल चाँद उगेगा ही...' इस आशा से मनुष्य को स्वस्थ रहना है और जीवन जीना है। परमात्मा के पास पहुँचने की तीव्र अभीप्सा... एक दिन... कभी न कभी पूर्ण होगी ही। भले, पहुँचने में दो-चार जन्म बीत जाय, परन्तु मार्ग तो अवश्य मिल ही जायेगा | मार्ग पाने का भी एक अपूर्व आनन्द होता है! जो पाता है, वह अनुभव करता है!
- प्रियदर्शन
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