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पत्र ३ कितना स्थान है? तर्क की जाल में फँसने वाले सिवाय वाद-विवाद और कुछ भी नहीं पाते हैं। वाद-विवाद से कभी अगोचर तत्त्वों का निर्णय नहीं हो सकता है। तर्क में गति है, प्रगति नहीं है। तर्कों की कोई सीमा नहीं है।
तो फिर मोक्षमार्ग का निर्णय कैसे किया जाय? क्या सत्य तत्त्वों का प्रतिपादन करने वालों का सहारा लिया जाय? अभिमत वस्तु रे वस्तुगते कहे ते विरला जग जोय!
किसी भी तत्त्व को उसके मूल स्वरूप में, अपने पूर्वाग्रहों को छोड़कर, अपने-अपने मत-सम्प्रदायों की मान्यताओं को छोड़कर कहने वाले कितने लोग होते हैं दुनिया में? लाख में कोई एक मिलेगा। जिनोक्त तत्त्वों की व्याख्यायें सभी अपने-अपने ढंग से कहते हुए स्वमत को पुष्टि कर रहे हैं। शास्त्र-वचनों का, अपने मत की पुष्टि के लिये उपयोग करते हैं। कौन ऐदम्पर्य का पर्यालोचन करता है? भावनाज्ञान के मानसरोवर में कौन गोता लगाता है? एक कवि ने इस बात को कही है'मारग साचा कौन बतावे? जाकुं जाय के पूछिये वे तो अपनी अपनी गावे...'
हे अजित, तेरे पास आने का मार्ग किसके पास जा कर मैं पूछू? मैं तो उलझन में फँस गया हूँ।
आनन्दघनजी अफसोस व्यक्त करते हैंवस्तु विचारे रे दिव्य-नयण तणो विरह पड्यो निरधार...
दिव्यदृष्टि का विरहकाल है। यथार्थ-वास्तविक तत्त्वचिंतन के लिए दिव्य ज्ञानदृष्टि चाहिए... उसका सहारा चाहिए। केवलज्ञान, मनःपर्ययज्ञान, अवधिज्ञान... जैसे दिव्यज्ञान आज यहाँ किसी के पास नहीं हैं। तत्त्वों का चिन्तन करते समय जब मन शंकाओं में उलझ जाता है तब समाधान किसके पास जाकर करें?
आज तो हमारे लिए विशिष्ट क्षयोपशम वाले शास्त्रज्ञ पुरुष ही आधारभूत हैं। जिनके पास उत्सर्ग-अपवाद का ज्ञान हो, निश्चय-व्यवहार का बोध हो...
और जो निष्काम-नि:स्पृह ज्ञानी हो... वे ही कुछ पथ-प्रदर्शन कर सकते हैं। ऐसे महापुरुषों का समागम होना भी आसान नहीं है।
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