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पत्र २५ असंख्य प्रदेशे वीर्य असंख्ये, योग असंखित कंखे रे,
पुद्गल-गण तिणे ले सुविशेषे, यथाशक्ति मति लेखे रे.... ३ उत्कृष्ट वीर्य निवशे, योग-क्रिया नवि पेसे रे,
योग तणी ध्रुवता ने लेशे, आतमशक्ति न खेसे रे.... काम-वीर्यवशे जिम भोगी, तिम आतम थयो भोगी रे,
शूरपणे आतम-उपयोगी, थाय तेह अयोगी रे.... वीरपणुं ते आतमठाणे, जाण्युं तुमची वाणे रे,
ध्यान-विन्नाणे शक्ति प्रमाणे, निज ध्रुवपद पहिचाणे रे.... ६ आलंबन साधन जे त्यागे, परिणतिने भागे रे,
अक्षय दर्शन ज्ञान वैरागे, आनन्दघन प्रभु जागे रे.... ७ श्रमण भगवान महावीर स्वामी के पावन चरणों में वंदना करते हुए योगीराज कहते हैं : ___'हे भगवंत! हे महावीर! मैं आपके चरणों में सर झुकाता हूँ और याचना करता हूँ कि मुझे भी आप वीरता दें। आपने जिस वीरता से मिथ्यात्व को और मोहांधकार को अपनी आत्मभूमि से खदेड़ दिया, आप निर्भय बने, विजेता बने.... और सारे विश्व में आपके विजय की दुंदुभि बजी! प्रभो, मुझे भी वह वीरता चाहिए.... | मैं भी मेरी आत्मभूमि पर से मिथ्यात्व-पिशाच को मार भगाना चाहता हूँ, मोह के प्रगाढ़ अंधकार को मिटाना चाहता हूँ। मेरे भीतर के शत्रुओं पर विजय पाकर, मैं भी सारे जगत में विजय की घोषणा करना चाहता हूँ। कृपाकर मुझे वैसी वीरता दें! आप ही वैसी वीरता दे सकते हैं। मेरे सारे भय, सारी चिंतायें दूर हो जायें और विघ्नों को कुचल कर मैं आपके पास आ सकूँ।'
वीरता का मूल स्रोत रहा हुआ है आत्मा में । 'आत्मवीर्य' में से सभी प्रकार की वीरता प्रवाहित होती है। शारीरिक वीरता, मानसिक वीरता और आध्यात्मिक वीरता.... आत्मवीर्य में से पैदा होती है।
वीर्य कहें, शक्ति कहें, बल कहें या सामर्थ्य कहें-सभी एकार्थक शब्द हैं। यहाँ पर श्री आनन्दघनजी सर्वप्रथम 'छद्मस्थवीर्य' की बात करते हैं और उसके दो प्रकार बताते हैं१. अभिसंधिज वीर्य और २. अनभिसंधिज वीर्य । चेतन, पहले इन तीन शब्दों का अर्थ बता देता हूँ।
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