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पत्र २५
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• वीरता का मूल स्रोत रहा हुआ है आत्मा में। 'आत्मवीर्य' में से सभी
प्रकार की वीरता प्रवाहित होती है।
O प्रत्येक आत्मा अखंड होते हुए भी सर्वज्ञ की ज्ञानदृष्टि में असंख्य प्रदेशवाली
है। और एक-एक आत्मप्रदेश में असंख्य असंख्य वीर्यांश रहे हुए हैं। • वीर्यान्तराय-कर्म का सर्वथा क्षय होने से जो क्षायिक भाव का आत्मवीर्य प्रगट होता है, इससे आत्मा मेरुवत् निश्चल बन जाती है। अयोगी बन जाती है। o कायर मनुष्य शास्त्रज्ञानी हो सकता है, परन्तु ज्ञान के अनुरूप पुरुषार्थ नहीं कर सकता है । पुरुषार्थ के लिए वीर्य चाहिए।
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पत्र : २५
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श्री महावीर स्तवना
प्रिय चेतन,
धर्मलाभ!
तेरा पत्र मिला, आनन्द हुआ।
तत्त्वज्ञान में रमणता होने पर जो अपूर्व आनन्द मिलता है, वैसा आनन्द किसी भी विषय के उपभोग से प्राप्त नहीं हो सकता है । तत्त्वरमणता होने पर, उस समय नहीं रहती है कोई चिन्ता, व्यथा और वेदना !
श्री आनन्दघनजी ने काव्यरूप में तत्त्वज्ञान दिया है, इससे तत्त्वज्ञान शुष्क नहीं रहा है, रसिक बन गया है । तत्त्वजिज्ञासुओं को इस अध्ययन से रसिकता का अनुभव होता है ।
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श्री पार्श्वनाथ भगवंत की स्तवना में, नियत स्थान में रहे हुए सर्वज्ञ परमात्मा की सकल ज्ञेय पदार्थों के साथ किस संबंध से सर्वज्ञता और सर्वव्यापिता है, यह बताने के बाद इस अंतिम स्तवना में आत्मा के क्षायिक वीर्य की बात की है । वीर्य के विना वीर - महावीर नहीं बना जा सकता है। आत्मवीर्य की विशद विवेचना इस स्तवना में की गई है।
वीरजीना चरणे लागुं, वीरपणुं ते मागुं रे,
मिथ्या-मोह तिमिर भय भाग्युं, जीत नगारुं वाग्यं रे..... छउमत्थ-वीर्य-लेश्या संगे, अभिसंधिज मति अंगे रे,
सूक्ष्म - स्थूल क्रिया ने रंगे, योगी थयो उमंगे रे.....
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