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पत्र २३
२०९ साथ उसका प्रेमसंबंध था। हालाँकि वह प्रेमसंबंध शारीरिक और मानसिक था। अंतिम भव में राजीमती की कसौटी हुई। अंतिम भव में अपने प्रियतम के साथ उसका शारीरिक संबंध असंभव हो गया था। परंतु उसने मानसिक संबंध नहीं तोड़ा | मानसिक प्रेम का उसने आध्यात्मिक प्रेम में रूपान्तर कर दिया। आत्मा से आत्मा का प्रेम । ___ जब तक नेमिनाथ को केवलज्ञान प्रगट नहीं हुआ, तब तक राजीमती इन्तजार करती रही। नेमिनाथ को केवलज्ञान होने के समाचार मिलते ही वह उनके चरणों में पहुंच गई और दीक्षा ग्रहण कर साध्वी बन गई।
राजीमती ने कितना महान त्याग किया एक प्रेम के लिये! वैषयिक सुखों की इच्छाओं का त्याग कर दिया!
चूँकि नेमिनाथ का यह उपदेश था कि वैषयिक सुखों की इच्छा नहीं करना । उसने नेमिनाथ के प्रति अपने हृदय में जो आकर्षण था, वह भी तोड़ दिया । चूँकि नेमिनाथ का उपदेश था कि परद्रव्य से राग नहीं करना, द्वेष नहीं करना। अपने ही आत्मद्रव्य में लीन होने की प्रेरणा थी नेमिनाथ की। राजीमती ने भगवान के मार्गदर्शन से अद्भुत आत्मशुद्धि पायी और भगवान से पूर्व ही मोक्ष पा लिया।
चेतन, प्रेम के गुणात्मक परिवर्तन की यह अद्वितीय मिसाल है। श्रीमद् आनन्दघनजी ने इस स्तवना में अपनी काव्यशक्ति का अद्भुत परिचय कराया है। राजीमती के हृदय की व्यथा, वेदना और आक्रोश प्रकट किया है, तो उसकी गहरी समझदारी का वर्णन भी किया है। अभिव्यक्ति की शैली विरोधालंकार की है। हर गाथा में से आध्यात्मिक अर्थ प्रतिभासित होता है। राजीमती का दिव्य व्यक्तित्व प्रस्फुट होता है।
राजीमती राजकुमारी थी, रूपवती थी, लावण्यमयी थी। यौवन की बहारें छायी हुई थी। शादी करने की उत्सुकता थी...। ऐसी अवस्था में, ठुकराकर चले जाने वाले प्रेमी के प्रति क्रोध, रोष...विरोध नहीं करना...और उसी प्रेमी के पदचिन्हों पर चलना...असाधारण घटना है। दुनिया में ऐसी दूसरी घटना घटी हो-मेरे ज्ञान में तो नहीं है।
प्रेम के गुणात्मक आध्यात्मिक परिवर्तन के विषय में गंभीरता से सोचना । तत्त्वचिंतन में तेरी प्रगति होती रहे, यही मंगल कामना.
- प्रियदर्शन
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