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पत्र २३
२०८ ____ त्रिविधयोग से योगावंचक, क्रियावंचक और फलावंचक-ये तीन योग भी यहाँ संगत होते हैं।
राजीमती को नेमिनाथ भगवान का अवंचक योग प्राप्त हुआ। साध्वीजीवन में संयमधर्म का यथार्थ पालन करने से अवंचक क्रियायोग भी सिद्ध हुआ। मोक्षफल की प्राप्ति होने से अवंचक फलयोग भी मिल गया?
स्तवना की इस गाथा में श्री आनन्दघनजी ने मोक्षप्राप्ति का श्रेष्ठ उपाय बता दिया है।
० मन-वचन-काया से सद्गुरु को समर्पित होना, ० निष्कपट हृदय से सदगुरु का योग बनाये रखना, ० क्रमशः संयम-आराधना की विशुद्धि प्राप्त कर पुष्ट होना, ० शृंगारादि सभी रसों को शान्तरस में विलीन करना, ० निरंतर शुभ और शुद्ध भावों की वृद्धि करना ।
राजीमती ने इस प्रकार आराधना कर, भगवान् नेमिनाथ से पूर्व ही मोक्ष पा लिया था! कारणरुपी प्रभु भज्यो रे, गण्यो न काज-अकाज...
राजीमती ने नेमिनाथ प्रभु को मात्र कारण-निमित्त रूप में स्वीकार कर उनकी उपासना की [भज्यो] थी। उसने कार्य-अकार्य का विचार नहीं किया था। यानी 'मैं जो नेमिनाथ की उपासना करती हूँ वह अच्छा कार्य है या बुरा कार्य है,' ऐसा कोई विचार उसने नहीं किया था। यानी संपूर्ण श्रद्धा [Total Faith] से संपूर्ण समर्पण [Total Surrender] से उसने नेमिनाथ की आराधना की थी।
श्रद्धा और समर्पण के श्रेष्ठ भाव जाग्रत होने पर कार्य-अकार्य के विचार पैदा नहीं होते। विचारों से मुक्त अवस्था पाकर राजीमती ने मोक्ष पाया था। आनन्दघनजी भी उसी प्रकार मोक्ष पाना चाहते हैं। वे कहते हैंकृपा करी मुज दीजिये रे, आनन्दघन-पद-राज...
'हे भगवंत! मेरे ऊपर कृपा करें और मुझे भी उसी प्रकार [जैसे राजीमती को दिया वैसे] आनन्दघनपद-मोक्ष का साम्राज्य दें।'
चेतन, राजीमती एक स्त्री थी। आठ-आठ जन्मों से भगवान नेमनाथ के
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