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पत्र २३ पशुजननी करुणा करी रे, आणी हृदय विचार...
पशुओं का चीत्कार सुनकर तेरे हृदय में दया का विचार आया । सही बात है, पशुओं का दुःख दूर करने की तूने करुणा की...तूने उन पशुओं का विचार किया परंतुमाणसनी करुणा नहीं रे, ए कुण घर आचार?
तूने मनुष्य [माणस] की दया नहीं की। तुझे मेरा विचार नहीं आया...क्या मैं पशु से भी गई बीती हूँ? 'पशुओं की दया करना, मनुष्य की नहीं...' ऐसा किस घर का आचार है? क्या तेरे घर की यही रीति-नीति है मेरे साजन? तूने जैसे पशुओं की दया की वैसे मेरा विचार भी तुझे करना चाहिए ना? प्रेम-कल्पतरु छेदियो रे, धरियो जोग धतूर...
मेरे प्राणनाथ! आपने प्रेम के कल्पवृक्ष का विच्छेद कर दिया और धतूरे जैसे योग को ग्रहण किया [धरियो], यह क्या आपकी बुद्धिमत्ता है? चतुराई रों कुण कहो रे, गुरु मीलियो जगसूर?
ऐसी बुद्धि [चतुराई] देनेवाला कौन गुरु आपको मिल गया? बड़ा जगसूर [जगत में शूरवीर] लगता है वह गुरु! जिसने आपको प्रेमरूपी कल्पवृक्ष का नाश करने का और जोग जैसे धतूरे को ग्रहण करने का उपदेश दिया! मारूं तो एमां कांई नहीं रे, आप विचारो राज... राजसभामां बेसतां रे, किसडी बधसी लाज...
आपने प्रेम तोड़ दिया तो भले तोड़ा, मेरा कुछ बिगड़नेवाला नहीं है। सोचना तो आपको चाहिए कि 'मैं राजसभा में बैलूंगा और मेरे साथ मेरी रानी नहीं होगी तो मेरी इज्जत [लाज] कितनी [किसड़ी] बढ़ेगी, [बधसी] यानी राजसभा में रानी की वजह से राजा की शोभा होती है। रानी के बिना राजा की शोभा नहीं होती है। प्रेम करे जग जन सहु रे, निरवहे ते ओर... प्रीत करी ने छोडी दे रे, तेहशुं न चाले जोर...
'हे नाथ, इस जगत में प्रेम तो सभी करते हैं, परंतु प्रेम को निभानेवाले तो ''धतूरा' एक प्रकार की तुच्छ वनस्पति है।
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