________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
पत्र २३
२०२ मुगति-स्त्रीशुं आपणे रे, सगपण कोई न काम... __मुक्तिरूप स्त्री के साथ आपको [आपणे] सगाई [सगपण] करने का कोई प्रयोजन [काम] नहीं है।'
कहने का तात्पर्य यह है कि : 'मैं आपको चाहती हूँ, मेरे हृदय में आपके प्रति पूर्ण प्रेम है, फिर मुक्ति-स्त्री से संबंध क्यों बाँधते हो? मत बाँधो संबंध । संबंध बाँधने के लिये मत चले जाओ। आप वापस लौट आओ...।' घर आवो हो वालम! घर आवो, मारी आशाना विशराम... रथ फेरो हो साजन! रथ फेरो, मारा मनोरथ साथ... ___'मेरे बालम! आप वापस घर पधारो...घर पधारो...आप ही मेरी आशाओं को पूर्ण करनेवाले हो! आप मिलते ही मेरी सभी आशाएँ पूर्ण हो जायेगी। इसलिए मेरे साजन! आप रथ वापस लौटाओ... मेरे मन के सभी मनोरथ आपके साथ जुड़े हुए हैं।'
[यहाँ पर जो 'मनोरथ साथ' है, उस जगह 'मनोरथ धाम' हो, तो उनुप्रास जमता है। ऊपर 'आज्ञाना विशराम' है, तो नीचे 'मनोरथ धाम' बराबर जमता है। 'राम' और 'धाम' का अनुप्रास होता है |]
राजीमती पूछती है : नारी पखो श्यो नेहलो रे, साच कहे जगनाथ!
हे जगत के नाथ! तू सच बोलना! तेरे मन में ऐसा है न कि स्त्री के एक पाक्षिक [पखो] प्रेम [नेहलो] की क्या कीमत? यानी 'राजीमती के हृदय में भले ही प्रेम हो, मेरे हृदय में उसके प्रति प्रेम नहीं है...तो उस स्त्री के प्रेम का क्या मूल्य?' ___ मेरे बालम! ऐसा मत सोचना, उस महादेव को देखईश्वर अरधांगे धरी रे, तू मुझ झाले न हाथ...
उस महादेव ने तो अपना आधा शरीर स्त्री को दे दिया है! आधे शरीर में स्त्री को स्थान दिया है। तू मेरा हाथ भी नही पकड़ता है...यह क्या उचित है? तू मेरा नाथ नहीं बनना चाहता है, तो जगत् का नाथ कैसे बनेगा? - [महादेव 'अर्धनारीश्वर' कहलाते हैं, इस कल्पना को लेकर राजीमती ने नेमिकुमार को उपालंभ दिया है]
For Private And Personal Use Only