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पत्र १५
___ १२० सूत्र अनुसार जे भविक किरिया करे, तेहनुं शुद्ध चारित्र परखो.... __ जो मोक्षगामी मनुष्य [भविक] सूत्रानुसारी-आगमानुसारी क्रिया करता है, वही शुद्ध चारित्री कहलाता है। जिनाज्ञा के प्रति सापेक्षभाव रखनेवाले साधक का ही शुद्ध चारित्र समझना चाहिए। साधक को परखना पड़ेगा। इसलिए सर्वप्रथम स्वयं ही वैसा साधक बन जाना चाहिए। जिनाज्ञा के प्रति सापेक्ष भाव बनाये रखने के लिये, जिनाज्ञाओं को समझना बहुत आवश्यक है। जिनाज्ञाओं को समझने के लिए बुद्धि सूक्ष्म होनी चाहिए। एह उपदेशनो सार संक्षेपथी, जे नरा चित्तमां नित्य ध्यावे, ते नरा दिव्य बहुकाल सुख अनुभवी, नियत आनन्दघन राज पावे...
सार भी संक्षेप में कहते हैं!
श्री अनन्तनाथ भगवंत की स्तवना के माध्यम से, वचन-अनुष्ठान का स्वरूप समझाते हुए, आनन्दघनजी ने बहुत सी बातें कह दी हैं। सभी बातों का संक्षिप्त सार बताते हुए उन्होंने कहा : 'जगत में, जिनाज्ञा से सापेक्ष रह कर प्रत्येक क्रिया करनी चाहिए।'
इस सारभूत बात का जो मनुष्य [नरा] अपने मन में चिंतन करेंगे, वे मनुष्य आनेवाले जन्मों में दीर्घकाल तक देवलोक के सुख पायेंगे.... और बाद में अवश्य [नियत] आनन्दघन-राज्य [मोक्ष] पायेंगे।
कहने का तात्पर्य यह है कि सूत्र-सापेक्ष क्रिया-धर्मक्रिया करनेवाला मनुष्य दुर्गति में नहीं जायेगा, देवगति पायेगा। देवलोक का असंख्य वर्षो का दिव्य सुख पायेगा। बाद में पुनः मनुष्यगति में जन्म पाकर, सभी कर्मों का नाश कर, विशुद्ध आत्मस्वरूप की प्राप्ति करेगा।
चेतन, जिनागमों की कोई-कोई बातें समझ में नहीं भी आये, तो भी उन बातों की उपेक्षा मत करना । अपनी बुद्धि की अक्षमता मान लेना और जिनागमों के प्रति आदरभाव अखंड बनाये रखना।
- प्रियदर्शन
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