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पत्र १५
से लोगों की प्राप्त की हुई [आणो] श्रद्धा कैसे टिकेगी ? उनकी श्रद्धा चली जायेगी ।
शुद्ध श्रद्धान विण सर्व किरिया करी, छार पर लींपणु तेह जाणो.....
शुद्ध श्रद्धारहित [श्रद्धा विण] मनुष्य जो भी धर्मक्रियायें करता है, वह राख [छार] ऊपर की लिपाई जैसी समझना । राख पर की हुई लिपाई टिकती नहीं है। वैसे श्रद्धारहित जो कोई धर्मक्रिया होती है, वह सही फल को नहीं देती है। इसलिए, जो भी व्यवहारधर्म किया जाय, वह जिनाज्ञा-सापेक्ष होना चाहिए। हृदय में जिनाज्ञापालन का भाव अखंडित रहना चाहिए | जिनशासन के प्रति निष्ठा रखनेवाले ज्ञानी गुरुदेवों का मार्गदर्शन लेकर व्यवहारमार्ग का अनुसरण करना चाहिए। जो निष्ठावाले साधु नहीं होते हैं, भले वे विद्वान् हों, परंतु वे आगमों के वचनों का अर्थ मनमाने ढंग से करते हैं । आगम-वचनों के अर्थ, भवभीरु और जिनशासन के प्रति निष्ठावाले बहुश्रुत गुरुजनों से प्राप्त करने चाहिए। जो धर्मगुरु भवभीरु नहीं होते हैं, निष्ठावान नहीं होते हैं और बहुश्रुत नहीं होते हैं, वैसे धर्मगुरु आगम-वचनों का गलत अर्थ करते हैं, यानी अपनी मान्यताओं के पक्ष में अर्थ करते हैं, इसको 'उत्सूत्रभाषण' कहते हैं । 'उत्सूत्रभाषण' को लेकर आनन्दघनजी कहते हैं :
पाप नहीं कोई उत्सूत्रभाषण जिस्यो, धर्म नहीं कोई जग सूत्र सरिखो
उत्सूत्रभाषण जैसा [जिस्यो] कोई पाप नहीं है। हिंसा, झूठ, चोरी, दूराचार, परिग्रह.... वगैरह पाप हैं, परंतु उत्सूत्रभाषण जैसे पाप ही नहीं हैं! उत्सूत्रभाषण तो सभी पापों से बढ़कर पाप है। हिंसा वगैरह पाप तो करनेवाले को ही दुःखी करता है, उत्सूत्रभाषण का पाप करनेवाले को तो दुर्गतियों में भटकाता है, साथसाथ सुननेवालों को भी गुमराह करता है और दुःखों के समुद्र में डुबो देता है।
आगमग्रन्थों का सही अर्थ करना और तदनुसार जिनाज्ञा का पालन करना-यही श्रेष्ठ धर्म है । कभी मनुष्य में सत्त्व नहीं हो और जिनाज्ञा का पालन नहीं कर सकता है, परंतु अर्थ तो वही करेगा कि जो सही है, जो महामनिषी आचार्यों ने भूतकाल में किया है। यह श्रेष्ठ धर्म है।
चेतन, प्रमादवश यदि कोई विशेष धर्माराधना नहीं हो सके तो चलेगा, परंतु अपने प्रमाद को सही सिद्ध करने के लिए युक्ति का या आगम का उपयोग कभी नहीं करना । जो भी धर्मक्रिया करना है, आगमवाणी के अनुसार
करना ।
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