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पत्र १४
१०८ समल अथिरपद परिहरे रे पंकज पामर पेख.... ___ कमला की दृष्टि में पंकज पामर [तुच्छ] दिखायी दिया, उसने उसका त्याग कर दिया और विमलनाथजी के चरण-कमल में जा बसी!
आनन्दघनजी भी विमलनाथ के चरण-कमल पर मोहित हो जाते हैं! वे कहते : 'हे प्रभो, मेरा मनभ्रमर भी आपके पद-पंकज में लीन बना है! आपके पदपंकज का गुण-मकरन्द पीने में लीन बना है! तेरे गुणों का रसपान करने में मेरा मन मस्त बना है।' मुझ मन तुज पदपंकजे रे लीनो गुणमकरन्द....
जब मनुष्य किसी भी विषय की मस्ती में झूमता है, तब वह दुनिया को व दुनिया के पदार्थों को नगण्य समझता है। कवि का मन परमात्मा के चरणकमलों में भ्रमर बनकर, गुणरस [मकरन्द] का पान करने में मस्त बना है, इसलिए कहते हैंरंक गणे मंदर-धरा रे, इन्द्र, चन्द्र, नागेन्द्र....
मेरा मन मेरुपर्वत की स्वर्णमय पृथ्वी को [मंदर पर्वत, धरा=पृथ्वी] भी तुच्छ [पामर] मानता है। यानी अब मुझे मेरुपर्वत का भी आकर्षण नहीं रहा है। न मुझे इन्द्रदर्शन में, चन्द्र-दर्शन में या नागराज के दर्शन में भी रस रहा है। मेरे लिए ये सारे दर्शन नीरस बन गये हैं। विमलनाथ के चरणकमलों में ही मेरा मन तृप्ति पाता है और मुक्ति भी वहीं पाना चाहता है।
जिनभक्ति में लीन बना हुआ मन, दिव्य-दैवी तत्त्वों के प्रति भी लापरवाह बन जाता है। अनासक्त बन जाता है | 'मेरे ऊपर कोई देव या देवी प्रसन्न हो जाय....' ऐसी इच्छा जिनभक्ति में रंगे हुए ज्ञानीपुरुष के हृदय में जागृत नहीं होती है। क्यों करनी चाहिए ऐसी आशा? परमात्मा में ही परम सामर्थ्य और परम शक्ति जिसने देख ली.... वह पुरुष रागी-द्वेषी देवों में आकर्षित क्यों होगा? कवि कहते हैंसाहिब! समरथ तूं धणी रे, पाम्यो हूं परम उदार....
आनन्दघनजी के समय में परमात्मा के लिए 'साहिब' शब्द का प्रयोग होता था। उस समय के दूसरे कवियों की काव्यरचना में भी 'साहिब' शब्द का प्रयोग पढ़ने में आता है।
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