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पत्र १४
१०६
विमलजिन ! दीठां लोयण आज!
मारां सिध्यां वांछित-काज.... विमलजिन. १ चरण-कमल कमला वसे रे, निर्मल-स्थिर-पद देख,
समल-अथिर पद परिहरी रे, पंकज पामर पेख....वि. २ मुज मन तुज पद पंकजे रे, लीनो गुण-मकरन्द,
रंक गणे मंदर-धरा रे, इन्द्र चन्द्र नागेन्द्र....वि. ३ साहिब! समरथ तूं धणी रे, पाम्यो परम उदार,
मन विशरामी वालहो रे, आतम चो आधार....वि. ४ दरिसण दीठे जिन तणुं रे, संशय न रहे वेध,
दिनकर करभर पसरतां रे, अंधकार प्रतिषेध....वि. ५ अमियभरी मुरति रची रे, उपमा न घटे कोय,
शांतसुधारस झीलती रे, निरखत तृप्ति न होय....वि. ६ एक अरज सेवक तणी रे, अवधारो जिनदेव,
कृपा करी मुज दीजिये रे, आनन्दघन-पदसेव....वि. ७ चेतन, प्रतिदिन अपन जिनमंदिर जाते हैं और परमात्मा के दर्शन करते हैं। परंतु क्या कभी परमात्मा के लोचन.... आँखें देखी है? लोचनों में ऐसे किसी दिव्य तत्त्व का दर्शन किया है कि दर्शन कर मन नाच उठा हो और बोल उठा हो कि 'मारां सिध्यां वांछित काज!'
आनन्दघनजी ने श्री विमलनाथजी के लोचनों में ऐसा कुछ देख लिया था.... एक दिन, और वे नाच उठे थे।
उनके मुँह से शब्द निकलेविमलजिन! दीठां लोयण आज....
यूँ तो वे रोजाना परमात्मदर्शन करते होंगे.... परंतु रोजाना दिव्यता का दर्शन नहीं होता है। एक दिन उस महायोगी को प्रभु की आँखों में दिव्यता दिखाई दी और वे बोल उठेमारां सिध्यां वांछित काज.... विमलजिन!
वांछित यानी इच्छित । 'हे विमल भगवंत, मेरे इच्छित सभी कार्य सिद्ध हो
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