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पत्र १२ अध्यातम जे वस्तु विचारे, बीजा जाण लबासी रे...
आध्यात्मिक कौन हो सकता है-इस प्रश्न का प्रत्युत्तर बहुत संक्षेप में दे दिया है, स्तवनकार ने। जो मनुष्य आत्मविषयक चिंतन करता है, हर वस्तु को उसके मूल स्वरूप में जानने का प्रयत्न करता है, वह सही रूप में आध्यात्मिक होता है।
हर वस्तु के दो रूप होते हैं : द्रव्य और पर्याय । इन्द्रियरामी जीव वस्तु के पर्यायों में उलझते हैं। आतमरामी, वस्तु के द्रव्य को देखने का प्रयत्न करते हैं। वे पर्यायों में मन को उलझने नहीं देते हैं। ___ जो मनुष्य साधु का वेश धारण करता है, अथवा श्रावक का वेश धारण करता है, परन्तु वस्तु का सही द्रव्यस्वरूप नहीं जानता है, द्रव्यदृष्टि से वस्तु का चिंतन नहीं करता है, वह वास्तव में साधु या श्रावक नहीं है। वह होते हैं मात्र वेशधारी साधु-श्रावक! चूँकि वे इन्द्रियरामी होते हैं। वस्तुगते जे वस्तु प्रकाशे आनन्दघनमत वासी रे... __ आनन्दघन का मत यानी अध्यात्ममार्ग। अध्यात्ममार्ग में रहा हुआ मनुष्य, आध्यात्मिक पुरुष ही पूर्ण अध्यात्म प्राप्त कर, सर्वज्ञता प्राप्त कर सकता है, पूर्णता प्राप्त कर सकता है। सर्वज्ञता और वीतरागता, अध्यात्म की श्रेष्ठ भूमिका होती है। सर्वज्ञ-वीतराग ही सभी पदार्थों को सभी त्रैकालिक पर्यायों से जान सकते हैं। हर आत्मा की स्वाभाविक और वैभाविक अवस्थायें जान सकते हैं।
चेतन, अध्यात्म का मार्ग ही पूर्णता पाने का सही मार्ग है। पूर्ण सुख और पूर्णानन्द प्राप्त करने के लिए, और-और बातें-वाद-विवाद छोड़कर, आत्मगुणों की प्राप्ति का लक्ष्य निर्धारित कर, तदनुकूल प्रवृत्ति-निवृत्ति का जीवन बना लेना होगा।
तुझे अध्यात्ममार्ग की प्राप्ति हो-ऐसी मंगल कामना करता हूँ|
___- प्रियदर्शन
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