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देवबोधि की पराजय से पूजा की। स्तवना की।
पूजाविधि पूरी करके जब राजा और देवबोधि महल पर आये तब देवबोधि ने कहा :
'राजेश्वर, कुलपरम्परा से चला आ रहा शैव धर्म छोड़कर इस जैन धर्म को स्वीकार क्यों किया ?'
'महाराज, शैव धर्म अच्छा है, परन्तु उस में हिंसा है। जैन धर्म अहिंसा का उपदेश देता है जो कि...'
देवबोधि ने राजा की बात बीच में ही काटते हुए कहा : 'तब फिर तुम्हारे पूर्वजों ने क्यों शैव धर्म अंगीकार किया था? हमें हमारा धर्म नहीं छोड़ना चाहिए। यदि तुम्हें मेरी बात पर भरोसा नहीं हो तो मैं तुम्हें तुम्हारे पूर्वज मूलराज वगैरह से रूबरू मिलवा दूँ! उन्हें पूछ लो! ब्रह्मा-विष्णु और महेश को बुलवा लूँ... उनसे पूछ लो कि कौन सा धर्म श्रेष्ठ है?'
देवबोधि ने उसी समय अपने मंत्र बल से कुमारपाल के पूर्वज राजा मूलराज वगैरह को हाजिर किया। कुमारपाल ने उन सब को प्रणाम किया। इसके बाद ब्रह्मा-विष्णु और महेश को उपस्थित कर दिये । कुमारपाल यह सब नजारा देखकर चकित रह गये।
- चार मुँहवाले ब्रह्माजी वेदमंत्रों का उच्चारण कर रहे थे। - चार हाथवाले कृष्ण के पास शंख-चक्र वगैरह शस्त्र थे। - तीन आँखवाले शंकर के गले में साँप झूल रहे थे।
- तीनों देव अत्यंत तेजस्वी थे। कुमारपाल को उन में परम ज्योति के दर्शन हो रहे थे।
ब्रह्माजी ने कहा : 'गुर्जरेश्वर, हमें पहचाना? हम इस सृष्टि का सर्जन करनेवाले... पालन करनेवाले और संहार करनेवाले-ब्रह्मा-विष्णु और महेश हैं। हम ही जीवों के जन्म-मृत्यु और जीवन के दाता हैं | हमारे द्वारा बताये गये धर्म से जीवात्मा स्वर्ग और मोक्ष के अनंत सुख प्राप्त करता है... इसलिए तेरी सभी भ्रमणाएँ दूर करके हमारी उपासना कर | शुद्ध वैदिक धर्म का सुरीति से पालन कर। इसी से तेरी मुक्ति होगी। और यह देवबोधि महायोगी है। यह हमारा ही प्रतिबिम्ब है... यों समझना। उसके कहे मुताबिक सभी कार्य तू करना।'
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