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सोमनाथ महादेव प्रगट हुए
सुवर्ण जैसी काया! सिर पर जटा! जटा में से बहती गंगा!... और ऊपर चन्द्रकला!
राजा ने उस आकृति को अंगूठे से जटा तक अपना हाथ लगा कर छुआ और निर्णय किया कि यह देवता ही है!
राजा ने जमीन पर पाँच अंग लगा कर प्रणाम किया और प्रार्थना की : 'ओ जगदीश... आपके दर्शन पाकर मेरी आँखें पावन हो गयी। चूंकि आपका ध्यान निरंतर करने वाले आत्मज्ञानी भी आपका दर्शन पाने के लिए सफल नहीं होते... फिर मुझ से अज्ञानी और पामर प्राणी की तो बिसात ही क्या? परन्तु मेरे परम उपकारी गुरुदेव के ध्यान से आपने मुझे दर्शन दिये हैं... मेरी आत्मा खुशी से उछल रही है।'
भगवान सोमनाथ का गंभीर ध्वनि मंदिर में गूंज उठा : 'कुमारपाल, मोक्ष देनेवाला धर्म यदि तू चाहता है तो इन साक्षात् परब्रह्म सद्दश सूरीश्वरजी की सेवा कर| सर्वदेवों के अवताररूप सर्वशास्त्रों के पारगामी...तीन लोक के स्वरूप को जाननेवाले हेमचन्द्रसूरि की प्रत्येक आज्ञा का तूं निष्ठापूर्वक पालन करना। इससे तेरी तमाम मनोकामनाएँ फलीभूत होंगी।'
इतना कहकर शंकर स्वप्न की भाँति अदृश्य हो गये। राजा का आश्चर्य तो आकाश छू रहा था।
उसने गुरुदेव के सामने देखा : उसके तन-मन-नयन हर्ष से गद्गद् हो उठे थे। उसने कहा : __'ओ गुरुदेव! ईश्वर भी आपके वश में हैं। आप ही महेश्वर हो! मेरे विगत जन्मों की पुण्यराशि आज एकत्र हो गयी है। आप ही मेरे देव हो... आप ही मेरे गुरु हो... आप ही मेरे तात हो और मात हो... आप ही मेरे भाई हो... और मित्र हो... इस लोक और परलोक में आप ही मेरे उद्धारक हो...' राजा गुरुदेव के चरणों में झुक गया । यात्रा सफल हो गई थी। सभी आनन्द और हर्षोल्लास से भरेपूरे होकर पाटन की ओर लौटे।
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