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तीर्थयात्रा
३८
राजा के पास जो भी आया... राजा से जो भी मिला... वह याचक, याचक न रहा। भिखारी, भिखारी न रहा। सभी के दीदार बदल गये ।
पूरे पादलिप्तपुर में सिद्धराज का जयजयकार हो उठा। सिद्धराज ने गिरिराज की यात्रा करके और दिल खोलकर दान देकर अपूर्व पुण्योपार्जन किया ।
आचार्यदेव के साथ संघ ने वहाँ से गिरनार की ओर प्रस्थान किया ।
रास्ते में आचार्यदेव ने राजा को गिरनार और भगवान नेमनाथ का परिचय दिया। भगवान नेमनाथ का जीवन चरित्र सुनकर राजा सिद्धराज आश्चर्यचकित् हो उठा।
संघ गिरनार पहुँचा।
जिस दिन पहुँचे उसी दिन सभी पहाड़ पर चढ़े। गिरनार पर्वत पर नैसर्गिक सौन्दर्य कदम-कदम पर बिछा हुआ था । घटादार आम्र वृक्षों की पंक्तियाँ... नीम... आसोपालव - अशोकवृक्ष वगैरह विविध वृक्षों की डालियों पर कोयल... तोता... वगैरह रंग-बिरंगे पक्षीगण मधुर गूञ्जन कर रहे थे । हवा के संग-संग झूल रही डालियों पर से खुशबुदार फूल गिरते रहते थे। घटादार वृक्षों के बीच उगे हुए ऊँचे बाँस के छिद्रों में हवा जाती और बाहर आती... इस प्रक्रिया से मधुर ध्वनि बहती रहती वातावरण में! जैसे की वनदेवी अपनी दिव्य वीणा के सूरों को छेड़ती हुई राजा सिद्धराज की कीर्तिगाथा गा रही हो !
आचार्यदेव के साथ सभी भगवान नेमनाथ के भव्य मंदिर में पहुँचे । प्रभु T के दर्शन करके सभी का मन मयूर नाच उठा । भावविभोर होकर सभी ने प्रभु को नमन किया।
राजा ने राजपरिवार के साथ, स्नान करके शुद्ध वस्त्र पहनकर भगवान का जलाभिषेक किया। फिर शुद्ध - मुलायम वस्त्र से भगवान की मूर्ति को स्वच्छ किया। इसके बाद चंदन और पुष्पों से प्रभु की पूजा की। प्रभुजी के समक्ष सोने के बाजठ पर रत्नों को बिछाकर स्वस्तिक रचाया। सुवर्णमुद्राएँ अर्पण कीं ।
फिर सभी गुरुदेव के इर्दगिर्द बैठ गये । गुरुदेव ने भावपूजा की। नये - नये काव्यों के माध्यम से गुरुदेव ने परमात्मा नेमनाथ की स्तवना की । सभी की आँखें खुशी के आँसुओं से भर आईं। रोमराजि विकस्वर हो उठी।
राजा सिद्धराज ने गद्गद् स्वर से प्रभु को बार-बार पंचांग प्रणिपात - वंदना
की।
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