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तीर्थयात्रा
३७
: 'गुरुदेव, कितना प्रभावी तीर्थ है यह! तीन-तीन घंटे गुजर गये फिर भी मन में तनिक भी सांसारिक विचार नहीं आये !
धन्य जिनशासन! प्रभु! इस महातीर्थ की भक्ति के लिए भगवान ऋषभदेव की पूजा-अर्चना के लिए मैं बारह गाँव समर्पण करता हूँ। उन गाँवों की महसूल-आय इस तीर्थ के लिए ही प्रयोग की जाएगी । '
गुरुदेव ने कहा :
'राजेश्वर, तुम्हारे दिल में भगवान ऋषभदेव के प्रति इतनी भक्ति उमड़ रही देखकर सचमुच, मेरा मन भी हर्षित है । यह तुम्हें अच्छा लगा.... इससे तुम धन्य हुए हो!'
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'गुरुदेव, पादलिप्तपुर में पहुँच कर मुझे कौन से सत्कार्य करने चाहिएँ ? इसके लिए समुचित मार्गदर्शन देने की कृपा करें ।'
‘राजन्, गिरिराज की तलहटी में तुम्हारी ओर से हमेशा के लिए भोजनालय चालू होना चाहिए ताकि जो भी यात्री यहाँ पर आये वह भूखा न रहे। पेट भर भोजन उसे मिले ।
इसी तरह पादलिप्तपुर नगर में भी गरीब लोगों के लिए राज्य की ओर से सदाव्रत चालू करना चाहिए, और बरसों तक वह बराबर चलता रहे, वैसी व्यवस्था करनी चाहिए ।
इस तरह, आज जब तुम नीचे उतरो तब तलहटी से लेकर पादलिप्तपुर नगर तक याचकों को, गरीबों को, विकलांगों को और अंधजनों को दिल खोलकर दान देना, ताकि बरसों तक लोग याद करते रहें कि ' गूर्जरेश्वर राजा सिद्धराज यहाँ भगवान ऋषभदेव की यात्रा करने के लिए आये थे ! इस तरह राजा बार-बार आते रहें तो अच्छा!'
गुरुदेव की प्रेरणा के मुताबिक राजा ने सदाव्रत प्रारम्भ कर दिये । याचकों को दान देना प्रारम्भ किया ।
राजा सिद्धराज जब बरसे तो फिर दिल खोलकर बरसते रहे!
उसने सोनामुहरें दी....
उसने सुन्दर वस्त्र दिये....
उसने घोड़े दिये... बैल दिये....
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• किसानों को खेती के लिए जमीन दी ....
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