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गुरुदेव की निस्पृहता ___ 'ठीक है.... आप बड़े महात्मा कहलाते हैं... पर मुझे तो तुम मूर्ख प्रतीत होते हो! जड़ हो, कुछ समझते ही नहीं हो!'
आचार्यदेव मौन रहे। सिद्धराज का रथ आगे चला । आचार्यदेव कुछ दूरी रखते हुए चलने लगे। सिद्धराज आचार्यदेव के पास जाता नहीं है। आचार्यदेव सिद्धराज के पास नहीं जाते हैं! एक दिन गया, दूसरा दिन गया... तीसरा दिन भी गुजर गया...। राजा सिद्धराज व्याकुल हो उठा। 'लगता है... अवश्य, आचार्यदेव मुझसे नाराज हो गये हैं।
मेरी प्रार्थना से वे मेरे साथ आये हैं, मुझे उनके दिल को दुखाना नहीं चाहिए! उन्हें प्रसन्न रखना चाहिए।'
चौथे दिन राजा आचार्यदेव का जहाँ पर पड़ाव था, वहाँ पर गया। उस वक्त आचार्यदेव अपने शिष्य मुनिवरों के साथ बैठकर भोजन कर रहे थे।
राजा ने आचार्यदेव और मुनियों के पात्र में रूखी-सूखी रोटी और पानी की कांजी...राब देखी। राजा सोचने लगा :
'ओह, ये जैन साधु कितनी कठोर तपश्चर्या करते हैं! आहार कितना नीरस और देखने में अच्छा नहीं लगे... वैसा लेते हैं, और पैदल चलते हैं! सचमुच, ये महात्मा लोग तो पूजनीय हैं। सम्मान के लायक हैं। मैंने उन्हें अनुचित शब्द कहकर उनका अपमान किया, वह गलत किया है। मैं उनसे क्षमा मागूंगा।'
आहारपानी कर के आचार्यदेव निवृत्त हुए। राजा ने, आचार्यदेव के चरणों में गिरकर माफी माँगी :
'गुरुदेव, आपने मेरे द्वारा दिये गये वाहन को स्वीकार नहीं किया... इसके लिए मुझे गुस्सा आ गया और मैंने आपको अयोग्य कटु शब्द कहे। मुझे इसके लिए खेद है, मुझे पश्चाताप हुआ है, मैं आपके पास क्षमा माँगने के लिए आया हूँ। आप मुझे माफ करें!
आचार्यदेव ने शान्त स्वर में कहा :
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