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गुरुदेव की निस्पृहता __ इस प्रकार की धर्मआराधना करने से ही कभी तो पुत्र का सुख मिल सकेगा हमें!'
राजा के मन में रानी की बात अँच गयी। राजा ने सर्व प्रथम तीर्थयात्रा करने का निश्चय किया। अपना निर्णय बताने के लिए वह हेमचन्द्रसूरि के पास गया। 'गुरुदेव, मेरी इच्छा तीर्थयात्रा करने की है। पर मैं आपके साथ तीर्थयात्रा करना चाहता हूँ | मेरी साग्रह विनति है कि आप तीर्थयात्रा में साथ पधारने की कृपा करें।'
आचार्यदेव ने कहा : 'राजन्, तीर्थयात्रा करने की तुम्हारी भावना अति उत्तम है और तुम्हारा आग्रह है तो हम भी तुम्हारे साथ अवश्य आएंगे।'
राजा प्रसन्न हो उठा। उसने आचार्यदेव का बहुत आभार व्यक्त किया। यात्रा की तैयारियाँ होने लगी। प्रयाण का शुभ मुहूर्त भी निकाला गया। मंगलवेला में राजा ने शत्रुजय गिरिराज की ओर प्रयाण किया। प्रजाजनों ने प्रसन्न हृदय से राजा को विदाई दी।
अनेक मुनिवरों को साथ लेकर आचार्यदेव ने भी राजा के साथ प्रस्थान किया।
राजा सिद्धराज रानी के साथ रथ में बैठा हुआ था। उसने आचार्यदेव से प्रार्थना की :
'गुरुदेव, मैं आप के लिए एक रथ देता हूँ। आप पैदल मत चलिए | वाहन का प्रयोग कीजिए। उस में बैठिए।'
आचार्यदेव ने कहा : 'हम कभी वाहन में नहीं बैठते! पैरों में जूते पहने बगैर हमें तो नंगे पैर ही पैदल चलना होता है। यदि हम वाहन में बैठे तो वाहन का भार ढोनेवाले घोड़ों को कष्ट होगा। और वाहन के नीचे अनेक छोटे-बड़े जीव-जंतुओं की हिंसा होगी, इसलिए राजन्! हम वाहन में नहीं बैठेंगे।'
राजा को आचार्यदेव की बात अच्छी नहीं लगी। उसे गुस्सा आया । अपनी बात का पत्ता कटते देखकर वह नाराज हो उठा। उसने नाराजगी जताते हुए कहा :
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