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सरस्वती की साधना वह करना है। इसलिए तू कश्मीर जा । मेरा तुझे हार्दिक आशीर्वाद है। और फिर मैं तो तेरे साथ ही हूँ ना! हमेशा तेरे दिल में बसा हुआ जो हूँ!
सभी विकल्पों का त्याग करके कश्मीर जाने की तैयारी करो। देवी सरस्वती की दिव्य कृपा प्राप्त करके, वापस जल्दी लौटकर मुझसे मिलना।'
शुभ दिन और शुभ मुहूर्त में सोमचन्द्रमुनि ने अन्य एक सहायक मुनि के साथ कश्मीर की ओर प्रयाण किया।
वे खंभातनगर के बाहर पहँचे। वहाँ उन्होंने एक भव्य जिनालय देखा। वे उस जिनालय में दर्शन के लिए पहुंचे। 'उज्जयन्तावतार' नाम का वह जिनालय था। उसमें भगवान नेमनाथ की नयनरम्य मूर्ति थी।
भगवान के दर्शन करके सोमचन्द्र मुनि का चित्त प्रसन्न हो उठा। जिनालय का शान्त वातावरण उनको बड़ा अच्छा लगा। उनके मन में विचार कौंधा :
'मैं आज की रात इस जिनालय में बिताऊँ तो, यहीं से देवी सरस्वती का ध्यान प्रारम्भ कर दूं।' __ सोमचन्द्र मुनि ने अपने साथी मुनिराज से अपने मन की बात कही। मुनिराज ने सहमति दी। जिनालय के पास एक छोटी सी धर्मशाला थी | उसमें दिन गुजार दिया । रात्रि के समय शुद्ध वस्त्र पहनकर सोमचन्द्र मुनि जिनालय में गये । भगवान नेमनाथ की सुन्दर-सुहावनी प्रतिमा के समीप घी का अखण्ड दीपक जल रहा था। दिये की झिलमिलाती रोशनी में प्रतिमा जैसे हास्य बिखेर रही थी।
सोमचन्द्र मुनि भगवंत के सामने शुद्ध भूमि पर आसन बिछाकर, पद्मासन लगाकर बैठ गये। उन्होंने मंत्रस्नान किया। और देवी सरस्वती के ध्यान में लीन हो गये।
रात के छह घंटे बीत गये। मुनिराज स्थिर मन-नयन से जाप-ध्यान कर रहे थे... और देवी सरस्वती साक्षात् प्रगट हुई।
देवी ने मुनि पर स्नेह की सरिता बहाई...कृपा की बारिश की... देवी ने मधुर स्वर में कहा : 'वत्स, तुझे अब मुझे खुश करने के लिए कश्मीर तक जाने की जरुरत
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