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सरस्वती की साधना देवचन्द्रसूरिजी ने उन्हें देखा। गुरुदेव को भी कुछ दिनों से महसूस हो रहा था... जैसे सोमचन्द्रमुनि किसी गंभीर सोच में डूबे हुए हैं।' उन्होंने सोमचन्द्रमुनि के सिर पर अपना वात्सल्य पूर्ण हाथ रखते हुए पूछा :
'वत्स... क्या बात है? ऐसे कौन से विचार में खो गये हो?' यकायक गुरुदेव को अपने समीप में आया देखकर सोमचन्द्रमुनि सहसा चौंक उठे। खड़े होकर गुरुचरणों में वंदना की और कहा : 'गुरुदेव, कुछ दिनों से एक विचार मन में निरंतर उठ रहा है।'
'क्यों इतनी परेशानी विचार करने में? तूने कभी कोई विचार मुझ से छुपाया नहीं है...।'
'आप से निवेदन करना ही है... पर उस विचार के लिए मैं स्वयं अभी द्विधा में हूँ। गुरुदेव! पर आज तो आप के चरणों में सब कुछ कह देना ही है। आप आसन पर बिराजिए।'
आचार्यदेव आसन पर बैठे। सोमचन्द्रमुनि विनयपूर्वक उनके सामने बैठे। 'गुरुदेव, जब से आपने मुझे चौदह पूर्वो के ज्ञान की बात कही है... पूर्वधर महर्षियों की कथाएँ सुनाई हैं... तब से मेरे मन में उन चौदह पूर्वो का ज्ञान प्राप्त करने की अदम्य इच्छा-अभीप्सा जगी है। परन्तु वैसा ज्ञान, विशिष्ट प्रज्ञा और तीक्ष्ण बुद्धि-शक्ति के बिना प्राप्त होना शक्य नहीं है! वैसी बुद्धि नहीं हो तो आपसे वह सारा ज्ञान...वैसा अद्भुत ज्ञान मैं प्राप्त नहीं कर सकता।
'गुरुदेव, मैंने पढ़ा है... सुना है... वैसी विशिष्ट प्रज्ञा देवी सरस्वती की उपासना करके प्राप्त होती है। वह उपासना, साधना देवी सरस्वती की मूल शक्तिपीठ जहाँ पर है... वहाँ जाकर करने से शीघ्र ही सिद्ध होती है। इसके लिए कश्मीर जाकर सरस्वती उपासना करने की मेरी इच्छा है। । परन्तु गुरुदेव, आपको छोड़कर इतने दूर के प्रदेश में जाने के लिए मन कबूल नहीं करता है...।
सोमचन्द्र मुनि की आँखें गीली हो उठीं। उनका गला अवरुद्ध हो गया।
गुरुदेव ने कहा : 'वत्स, देवी सरस्वती की उपासना करने से विशिष्ट बुद्धि प्रगट होती है और इस बुद्धि के सहारे विशिष्ट ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है... नये-नये धर्मग्रन्थ और अध्यात्म ग्रन्थ का सर्जन किया जा सकता है। तुझे
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