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आकाशमार्ग से भरुच में
१०४ स्तवन, चैत्यवंदन वगैरह धर्मक्रियाएँ पूर्ण होने पर, सभी मंदिरजी के रंग मंडप में आये।
आचार्यदेव ने आम्रभट्ट से कहा : 'इस पृथ्वी पर तुम्हारे जैसे पुरुष जब जन्म लेते हैं... तब कलियुग भी सतयुग बन जाता है। तुमने सूखे हुए दान धर्म के झरने को फिर बहता कर डाला | यह झरना पूरी धरती पर बहता ही रहे... ऐसे सुकृत तुम्हारे हाथों होते ही रहे! मेरा तुम्हें आशीर्वाद है।'
आचार्यदेव ने प्रसन्न मन से आशीर्वाद बरसाये। राजा कुमारपाल ने तो आम्रभट्ट को गले ही लगा लिया। लोगों ने आचार्यदेव के जयजयकार से धरती और आकाश को गुंजारित कर डाला।
__गुरुदेव और कुमारपाल वगैरह वापस पाटन पहुँच गये। इधर गुरुदेव पाटन पहुँचे और उधर भरुच में आम्रभट्ट को गंभीर बीमारी ने घेर लिया। समझ में न आए वैसी पीड़ा से उनका शरीर टूटने लगा। - स्नेही, स्वजन और राजपुरुष घबरा उठे |
- वैद्यों ने उत्तम औषध प्रयोग किये... उपचार किये पर सब कुछ व्यर्थ रहा।
- मंत्रविदों ने मंत्र प्रयोग किये पर कुछ फर्क नहीं पड़ा। - स्नेहीजनों ने तीर्थयात्रा की मनौती रखी। - वृद्ध स्त्रियों ने गोत्रदेवियों की पूजा अर्चना की। मनौती मानी। - पूजारियों ने डायन-चुडैलों को नैवेद्य चढ़ाये... पूजा-आह्वाहन किया। फिर भी दण्डनायक का शरीर दिन ब दिन कमजोर हुआ जा रहा था।
दण्डनायक के वयोवृद्धा माता ने देवी पदमावती की आराधना की। देवी पद्मावती प्रगट हुए। उन्होंने कहा :
'गुरुदेव हेमचन्द्रसूरिजी ही अच्छा कर सकेंगे, यह प्रबल दैवी उपद्रव है। गुरुदेव के बस की ही बात है।'
देवी अदृश्य हो गई। माता ने दो आदमियों को सारा मामला समझाकर पाटन भिजवाये ।
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