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जिंदगी इम्तिहान लेती है
फिर तो एक घन्टे तक वार्ता चलती रही। वे हृदय में नया उल्लास और नई उमंगे भर कर गए। धर्मप्रवृत्ति में उनका मन स्थिर होने लगा। घर में दूसरों के मन भी प्रसन्न रहने लगे।
जो सुख हमारे पास नहीं, उस सुख का अभाव हमारे ऊपर इतना 'हावी' नहीं हो जाना चाहिए कि हम शून्यमनस्क बन जाएँ! हमारा मन अशांति से जलता रहे। मानसिक तनावों से हम हतप्रभ हो जायें। तेरी स्थिति भी कुछ ऐसी ही हो रही है, नहीं? एक व्यक्ति के दुर्व्यवहार से तू तंग आ गया है और घोर परेशानी अनुभव कर रहा है। तू विचार कर कि उस व्यक्ति के अलावा दूसरे कितने मनुष्यों का तुम्हारे प्रति स्नेह और सद्भाव है। अनेकों का स्नेह और सद्भाव तेरे हृदय को प्रसन्न नहीं कर सकता, एक व्यक्ति का दुर्व्यवहार तुम्हारे मन को परेशान कर रहा है। इस परेशानी से मुक्ति के लिए तुझे प्रयत्न करना चाहिए। परिस्थिति बदल सकती है। ऐसी ही परिस्थिति कायम रहने वाली नहीं है। 'कब तक ऐसी परेशानियाँ सहन करता रहूँगा?' ऐसा विचार नहीं करना चाहिए। तृप्ति और अनासक्ति का सहारा लेकर जीवनकाल को आनंद से व्यतीत करना है।
अतृप्ति और आसक्ति ही अपने मन को व्यथित करती है। तू स्थिर चित्त से सोचेगा तो यह बात तेरी समझ में आ जाएगी। ऐसा भी नहीं है कि अतृप्ति और आसक्ति से छुटकारा नहीं मिल सकता। मिल सकता है छुटकारा | अपना संकल्प चाहिए छुटकारा पाने का । तेरे लिए यह कार्य कठिन नहीं है। बाहरी प्रतिकूल संयोगों से छुटकारा पाने की बजाय अन्तरंग अतृप्ति और आसक्ति से छुटकारा पा लेना ज़्यादा श्रेयस्कर है। जितने सुख है अपने पास, उन सुखों में तृप्ति और उन सुखों में अनासक्ति! ___ अतृप्ति नए-नए सुखों के प्रति आकर्षण पैदा करती है और आसक्ति प्राप्त सुखों में सुध-बुध खो देती है। बस, मनुष्य इसमें उलझ जाता है। इसमें उलझा हुआ मनुष्य फिर धर्म क्रियाएँ भी करे, उसका मन धर्म क्रियाओं में स्थिरता और प्रसन्नता नहीं पाता है। धर्म क्रियाएँ नहीं, दूसरी भी संसार की क्रियाएँ वह स्थिरता से नहीं कर पाता है। कुछ न कुछ गलती कर देता है। रावण का पतन क्यों हुआ था? हजारों रूपरानियाँ उसके अन्तःपुर में थीं, फिर भी तृप्त नहीं हुआ, सीताजी का अपहरण करके ले आया लंका में। सीता के रूप में वह इतना आसक्त बन गया था कि विभीषण तथा मंत्रिमंडल के समझाने पर भी उसने सीता को वापस नहीं लौटाया | रावण इतना चंचल हो गया था कि राज्यकार्य में भी उसका मन लगता नहीं था।
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