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जिंदगी इम्तिहान लेती है
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प्रेम के बिना ये चारों में से एक भी भाव टिक नहीं सकता । प्रेम विराट है । कोई एक-दो या पाँच-पचास व्यक्ति में सीमित नहीं रह सकता । जीव मात्र के प्रति प्रेम फैलता है। प्रेम का क्षेत्र है, संपूर्ण ब्रह्मांड, परिपूर्ण जीव राशि।
सौराष्ट्र में ‘मस्तराम' नाम के एक संत हो गए। उनके शरीर में एक फोड़ा हुआ। फोड़े में असंख्य कीड़े पड़ गए। उनको वेदना होती थी परन्तु ज़्यादा चिन्ता होती थी उन असंख्य कीड़ों की । ' ये बेचारे भूखे मर जाएँगे..' इसलिए वे बेसन-चने का आटा लाकर उस फोड़े में भरते थे । मस्तरामजी की ज्ञानदृष्टि उन कीड़ों में भी 'आत्मा' का दर्शन करती थी । उन कीड़ों के प्रति प्रेम था । उस प्रेम में वे अपनी शारीरिक वेदना भूल गए ! वेदना की अनुभूति होने पर सहनशीलता का सहारा लेते। कोई औषध उपचार नहीं करवाया। किसी भक्त को फोड़ा बताया भी नहीं । परन्तु भावनगर के महाराजा तख्तसिंहजी मस्तरामजी के परम भक्त थे। उन्होंने अंग्रेज सर्जन के द्वारा, मस्तरामजी को बेहोश करके, फोड़े का ऑपरेशन करवा दिया ! जब मस्तरामजी होश में आए.. और उनको मालूम हुआ कि फोड़े को काट दिया गया है और सब कीड़े मार दिए गए हैं... उनको इतना गहरा आघात लगा कि तुरन्त ही उनकी मृत्यु हो गई ।
जिनके प्रति सच्ची मैत्री या करुणा होती है, उनके दुःख से दुःखी हुए बिना नहीं रह सकता। उनका दुःख दूर करने का प्रयत्न हुए बिना नहीं रहता । स्वयं दुःख सहन करके भी दूसरों का दुःख दूर करने का प्रयत्न हो ही जाता है! प्रेम करवाता है वह प्रयत्न । चैतन्य के प्रति प्रेम, जीवत्व के प्रति प्रेम तेरे हृदय को आनंद से परिपूर्ण कर देगा, प्रयोग करके देखना ।
हृदय को निःसंग और निर्मोही बनाने का प्रयत्न करेगा? उस प्रयत्न में अनित्य, अशरण, एकत्व, अन्यत्व और अशुचि आदि बारह भावनाओं का प्रतिदिन चिंतन करना । इस चिंतन में 'शांत सुधारस' नाम का संस्कृत गेय महाकाव्य तेरे लिए उपयोगी बनेगा। इसका गुजराती एवं हिन्दी भाषा में अनुवाद - विवेचन भी छप गये हैं।
स्वास्थ्य अनुकूल है। इन दिनों में परमात्मतत्त्व के प्रति विशेष आकर्षण और शरणभाव प्रगट हो रहा है। मन की प्रसन्नता बढ़ती जाती है। तेरी कुशलता चाहता हूँ।
९-३-७७
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प्रियदर्शन