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जिंदगी इम्तिहान लेती है दुःखी है। मानना ही पड़ेगा। इसलिए निःसंग और निर्लेप हृदय से जीवन व्यतीत करने को कहता हूँ। ___संसार के जीवों के प्रति मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ्य भाव भी ऐसे ही हृदय में जागृत होते हैं। नि:संग और निर्लेप हृदय में ही दूसरे जीवों के हित का, सुख का विचार आ सकता है। चूंकि उनका स्वयं का कोई स्वार्थ नहीं होता, स्वयं की कोई एषणा नहीं होती। जिसको स्वयं का हित साधना होता है, वह दूसरे जीवों का हित-विचार नहीं कर सकता।
मैत्री की अनिवार्य शर्त है, परहितचिन्ता । दूसरे जीवों का अहित न हो, यह भी हितचिन्ता ही है। 'मेरे से किसी भी जीव का अहित न हो,' यह भावना निर्मोही और असंगी आत्मा में ही जागृत हो सकती है। मोहान्ध और पुद्गलसंगी जीव तो अपने ही सुखों का विचार करता है। अपने ही स्वार्थ साधने का सोचता है। इसका अर्थ यह है कि मैत्रीभाव... सच्चा मैत्रीभाव निर्मोही और असंगी हृदय में ही जागृत होता है।
श्रेष्ठी सुदर्शन का हृदय ऐसा ही होना चाहिए, अन्यथा रानी अभया को बचाने के लिए कलंक और सजा अपने पर नहीं लेते। अभया ने सुदर्शन को संकट में डाल दिया था। सुदर्शन का अपहरण करवाया था और अपने महल में, रात्रि के समय अभया ने सुदर्शन से कामक्रीड़ा की प्रार्थना की थी। जब सुदर्शन मौन रहे, निर्विकार रहे, अभया ने स्त्रीचरित्र आजमाया... हो-हल्ला कर दिया और सुदर्शन को सैनिकों से पकड़वा दिया। सारे नगर में सुदर्शन श्रेष्ठी का नाम था। नगर में सुदर्शन की निन्दा होने लगी। सुदर्शन को राजसभा में राजा के सामने खड़े कर दिए गए। राजा ने कहा : 'सुदर्शन, आप महान श्रावक हैं। आप के प्रति मेरे हृदय में स्नेह और श्रद्धा है। आप कभी असत्य नहीं बोलते। कहिए, इस बात में सत्य क्या है। आप जो कहेंगे, मैं उसे ही सत्य मानूँगा।'
सुदर्शन ने सोचा : यदि मैं सत्य बात कह दूँगा तो रानी अपराधिनी सिद्ध होगी। कामवासना-परवश रानी ने सब कुछ किया है... मोहवासना में जीव अन्धा हो जाता है। अन्धा मनुष्य कभी भी गिर जाता है... उसमें ज्ञान भी नहीं है। राजा रानी को शूली पे लटका देगा... आर्तध्यान और रौद्रध्यान में रानी मरेगी... मर कर दुर्गति में चली जाएगी.. दुःखी-दुःखी हो जाएगी..। नहीं, नहीं, मैं उसका नाम नहीं दूंगा.. अपराध को मौन स्वीकार कर लूँगा...
सुदर्शन का हृदय निःसंग और निर्लेप था, इसलिए उनको अपने जीवन का, अपनी पत्नी का, पुत्रों का विचार नहीं आया... अपराधिनी रानी का
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