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जिंदगी इम्तिहान लेती है
गुणरहितं, कामनारहितं, प्रतिक्षणवर्धमानम्। अविच्छिन्नं सूक्ष्मतरं अनुभवरूपम् ।।
[ना० भ० सू० : ५४] प्रेम का स्वरूप (१) गुणरहित (२) कामनारहित (३) प्रतिक्षण बढ़ता हुआ (४) सातत्यसहित (५) अति सूक्ष्म और (६) अनुभवात्मक है। ___ मैं तुझे क्या कहूँ? क्या बताऊँ? कुछ वर्ष पूर्व... अपने को... अपने साधक जीवन को स्वस्थ रखना असह्य हो गया था, उन दिनों में | अपनी त्यागवैराग्य की उपलब्धि मैं खोता ही चला गया था। अपने आपको खाली महसूस कर रहा था। आत्मभाव में रहकर इस रुक्ष वैराग्य को जीना और उस पर विश्वास करना संभव नहीं हो पा रहा था । एक निगूढ़ विषाद ने मुझे घेर लिया था। मैं- मेरा अन्तर्मन चाहता था कुछ ऐसा ही प्रेम! संसार में तो ऐसा प्रेम मिले ही कहाँ? जहाँ स्वार्थ और शोषण के अलावा दूसरा कुछ है ही नहीं। परंतु साधकों के, मोक्षमार्ग के पथिक कहलाने वालों की सृष्टि में भी ऐसा प्रेम नहीं देखा, नहीं पाया,। यहाँ पर भी वही स्वार्थ और वही शोषण! मैं भी उन्हीं में से ही हूँ न!
जो गुणवान दिखें, उन से ही प्रेम किया जाता है। अतः प्रेम पाने के लिए गुणवान दिखने का दंभ किया जाता है। यदि मुझ में उनको गुण नहीं दिखेंगे, मेरे साथ वे लोग प्रेम नहीं करेंगे। यदि उन लोगों की कुछ कामनाएँ.. इच्छाएँ मेरे से पूर्ण होती होगी, तो ही वे मुझ से प्रेम करेंगे! जब तक उनकी इच्छाएँ मैं पूर्ण करता रहूँगा, उनका प्रेम बढ़ता जाएगा, परंतु जैसे ही मैंने उनकी इच्छा पूर्ति करना बंद किया कि उनका प्रेम घटता जाएगा। कभी प्रेम, कभी द्वेष! सतत प्रेम की धारा तो बहती दिखे ही नहीं! फिर प्रेम की सूक्ष्म भूमिका और प्रेम का अनुभव तो हो ही कैसे?
नारद ने जैसा प्रेम का स्वरूप बताया है, वैसा स्वरूपवाला प्रेम दूसरों से मिले या नहीं मिले, हमको दूसरों से प्रेम करना है, तो ऐसा ही प्रेम करना चाहिए - यह बात मैंने निश्चित कर ली। मेरे मन का विषाद दूर हो गया। मैंने अपनी आत्मसाधना में नई स्फूर्ति पाई और वैराग्य भावना विशेष रूप से ज्ञानपूत बनी।
आज तो मैंने अपना ही मनोमंथन लिख दिया । शायद तुझे पढ़ने में आनंद
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