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जिंदगी इम्तिहान लेती है
२१४ __ हैं। धीरे-धीरे इस महापर्व का रूप भी बदलता जा रहा है। इस महापर्व के पवित्र दिनों में जहाँ, साधु पुरुषों के मुख से 'कल्पसूत्र' के प्रवचन सुनने थे... कुछ जगह कुछ संप्रदायों में दूसरे ही प्रवचन सुने-सुनाये जाते हैं! कुछ जगह, भिन्न-भिन्न विषयों पर गृहस्थ लोग ही प्रवचन देते हैं। विषय धार्मिक के अलावा सामाजिक और राजकीय भी होते हैं!
दुःख की बात यह है कि आज कोई किसी को कहने वाला नहीं है। हर व्यक्ति मनचाहा कर लेता है। इससे बहुत सी विकृतियाँ धर्मक्षेत्र में प्रविष्ट हो गयी हैं और हो रही हैं। __प्रिय मुमुक्षु, सावधान रहना! धर्मक्षेत्र में, धर्म के नाम से कोई अधर्म जीवन में प्रविष्ट न हो जाय । पर्युषणपर्व में तूने तपश्चर्या अच्छी की है। प्रवचन भी सुने हैं। धर्मक्रियाएँ भी की हैं। परंतु सभी जीवों से क्षमायाचना कैसे की, वह तूने पत्र में नहीं लिखा है। वर्तमान जीवन में, आज दिन तक, जिन-जिन के साथ वैर-विरोध हुआ हो उनके पास जाकर, विनय और नम्रता से तूने क्षमायाचना की होगी? छोटे-बड़े का खयाल किये बिना, निरभिमानी बनकर तूने अपने अपराधों का पश्चात्ताप किया होगा?
दूसरे जीवों को ही अपराधी मानने की मनोवृत्ति बहुत ही विघातक होती है। हर बात में दूसरे की ही गलती देखना, दूसरे को ही अपराधी मानना, बहुत ही खराब आदत है। अपने आपको निरपराधी मानना, बेगुनाह मानना, यही बड़ी भूल है, अज्ञानता है | जीवन के भिन्न-भिन्न व्यवहारों में अपने आपको निर्दोष सिद्ध करना और दूसरों को ही दोषित सिद्ध करना- उपादेय माना गया है! मोक्षमार्ग की आराधना में यह बात सर्वथा हेय मानी गई है।
दूसरे जीवों के साथ संपूर्णतया निर्वैरवृत्ति आये बिना, आत्मा की परिपूर्ण विशुद्धि संभव नहीं है। अहंकार और तिरस्कार वैरवृत्ति को पुष्ट करते रहते हैं। प्रिय मुमुक्षु, तुझे यदि वास्तविक मोक्षमार्ग की आराधना करनी है, तो अहंकार के हिमालय को पानी बनाकर बहा दे! 'मैं बड़ा हूँ, मैं ज्ञानी हूँ, मैं समझदार हूँ, मैं धर्मात्मा हूँ...' ऐसी-ऐसी अहंकारजन्य कल्पनाएँ हृदय से निकालनी ही होगी। अहंकार का मूल्यांकन ही नहीं होना चाहिए।
अहंकार, दूसरे जीवों का तिरस्कार करवाता है। अहंकारी मनुष्य किसी का भी मित्र नहीं बन सकता है। कैसे बन सकता है मित्र? मित्रता यानी सख्यभाव! सख्यभाव में अहंकार को स्थान नहीं होता और तिरस्कार की तो
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