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जिंदगी इम्तिहान लेती है
१६० ® प्राचीनकाल की श्रमणसंस्कृति कितनी लुभावनी प्रतीत होती है, कभी
कभी! पर्वतीय उपत्यकाओं में रहने का! गुफाओं में जीने का! निर्जन गृहों
में रहने का! नि:संग बन कर! निर्मम बन कर! ® परद्रव्य के सहारे 'स्व' को पूर्ण बनाने की अंधी दौड़ में आत्मसत्ता को भुला
दिया गया है। ® सुख पाने के लिये और दुःख से पीछा छुड़ाने के लिये सारा संसार दौड़धूप
मचा रहा है। ® दूसरों के कर्तव्यों की छानबीन में उलझने की बजाय हमें हमारे कर्तव्यों को
जानना-पहचानना जरूरी है। ® जहाँ अपनी जिम्मेदारी नहीं या लेना-देना नहीं, वहाँ अपनी अधिकारवादी
मनोदशा का प्रदर्शन करने से क्या?
पत्र : ३७
प्रिय गुमुक्षु!
धर्मलाभ, तेरा पत्र मिल गया था, हमारी पदयात्रा चल रही थी, अब डीसा पहुँच गये हैं, पदयात्रा स्थगित हो गई, चातुर्मास-काल अति निकट है... वर्षा का प्रारंभ हो गया है, वैसे चातुर्मास के कार्य-कलापों का भी प्रारंभ हो रहा है।
प्राचीनकाल की श्रमण संस्कृति कभी-कभी बहुत आकर्षित करती है! वर्षाकाल में सारी बाह्य प्रवृत्तियों से मुक्त बन, निर्जन गृहों में... पर्वतीय गुफ़ाओं में जाकर मुनिवृन्द तपश्चर्या के साथ ध्यान में निमग्न हो जाते थे! निजानन्द की मस्ती का अनुभव करते थे... कैसा अद्भुत होगा उनका आंतर आनन्द! अद्वैत की कैसी दिव्य अनुभूतियाँ होती होगी।
कोई सामाजिक प्रवृत्तियाँ नहीं! कोई जनसंपर्क नहीं! प्रतिपल जागृति, प्रतिक्षण अप्रमत्तता! परब्रह्म में निमग्नता! कोई विषयान्तर नहीं! वह थी मोक्षप्राप्ति की अदम्य आंकाक्षा... वह थी आत्मप्राप्ति की अखंड आराधना । आज कहाँ है वह श्रमणसंस्कृति की परम्परा? कहाँ है वह अद्वैत की आराधना?
आज तो द्वैत के असंख्य द्वन्द्व! आज तो है परद्रव्य के सहारे पूर्णता पाने
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