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जिंदगी इम्तिहान लेती है
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● या तो अकेले जीने की कला सीख लेनी चाहिए या फिर सहजीवनसमूहजीवन जीने का तरीका समझ लेना चाहिए ।
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• एकत्व भावना व अन्यत्व भावना को दृढ़ बनाए बगैर अकेले जीना... प्रसन्नता से जीना संभव नहीं है!
• परस्पर एक दूसरे को समझे बगैर, एक दूजे को सहे बगैर सहजीवन संभवित नहीं है !
* जब हम स्वयं किसी की इच्छा के मुताबिक नहीं जी सकते फिर औरों से यह अपेक्षा क्यों रखनी चाहिए कि वे हमारी इच्छा के मुताबिक जिएं?
प्रिय गुमुक्षु,
* आग्रही स्वभाव, दुराग्रही वर्तन जिन्दगी को भ्रमणाओं में भ्रमित कर डालता है! न किसी की सहानुभूति टिकती है... न कोई संबंध बनता है !
पत्र : ३५
धर्मलाभ !
तेरा पत्र जब मेरे हाथ में आया तब आकाश प्रकाशरहित था । दिशायें उदास थी और वृक्षों पर पक्षी चुप्पी साधे बैठे थे । तेरे पत्र में जब तुझे देखा, तुझे सुना तो मेरा मन भी क्षुब्ध हो गया। हालाँकि मेरी क्षुब्धता बादलों जैसी क्षणिक थी। मैंने तेरी बातों पर गहराई से सोचा ।
प्रिय मुमुक्षु ! तुझे आज कुछ सच - सच बातें बता देना उचित मानता हूँ । पहली बात तो यह है कि तू संसार में जीने की कला अभी तक सीखा नहीं है। या तो तू अकेला जीने की कला प्राप्त कर ले अथवा किसी के साथ जीने की पद्धति सीख ले। स्वस्थ चित्त से तू निर्णय कर ले | निर्णय दृढ़ करना । मन की चंचलता निर्णय को दृढ़ नहीं होने देती है, इसलिए चंचलता तो मिटानी ही होगी।
यदि अकेला जीना है तो तू अकेला जी सकता है, परंतु इसके लिए तुझे एकत्व भावना से भावित होना पड़ेगा । अकेलापन अखरना नहीं चाहिए । 'मेरा कोई नहीं है,' यह दीनता कभी भी तेरे मन में नहीं आनी चाहिए। यदि मन में किसी को अपना बनाने की इच्छा है, तो तुझे किसी का बनना होगा ! तू यदि
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