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जिंदगी इम्तिहान लेती है स्वच्छता, भव्यता और रमणीयता से यह तीर्थ सचमुच शांतिप्रिय जीवों का स्वर्ग है।
यात्रियों के लिए यहाँ एक बड़ी पुरानी धर्मशाला है। एक भोजनालय भी है। कुछ नए ‘ब्लॉक्स' भी बने हुए हैं। तीर्थ की व्यवस्था आणंदजी कल्याणजी पेढ़ी कर रही है। परंतु अव्यवस्था की सीमा नहीं है।
यहाँ दिगम्बर सम्प्रदाय का भी मंदिर है, धर्मशाला है। नजदीक ही एक पहाड़ी पर 'कोटिशिला' नामक दर्शनीय स्थान है। दूसरी एक पहाड़ी पर 'सिद्धशिला' नामक दर्शनीय स्थान है। 'पुण्य-पाप की बारी' नामक एक तीसरा रमणीय-दर्शनीय स्थान है। ___ एक दिन हम लोगों ने एक आश्चर्यजनक दृश्य देखा | मंदिर के बाह्य चौक के एक भाग में पेढ़ी की ओर से पक्षियों के लिए अन्न डाला जाता है, उधर कुछ बन्दर और कुछ कबूतर साथ में दाने चुग रहे थे। कबूतर बन्दरों से निर्भय थे, बन्दर कबूतर को कोई हरकत नहीं कर रहे थे। यों भी इस तीर्थ में बन्दरों की आबादी ज़्यादा है। चूंकि यहाँ बन्दर निर्भय हैं। यहाँ किसी भी पशु-पक्षी का शिकार नहीं होता है। यात्री भी बन्दरों के साथ खेलने लग जाते हैं! कभी कोई शरारती लड़के आ जाते हैं... तो बन्दरों को हैरान भी करते हैं!
आज से करीबन १५ वर्ष पूर्व, जब मैं इस तीर्थ में आया था, २४ तीर्थंकर भगवंतों की भक्ति के २४ गेय काव्य बनाने का प्रारंभ किया था। २४ काव्य बन गए थे और 'वंदन हो वीतराग' नाम का गुजराती काव्यसंग्रह प्रकाशित भी हो गया था। __ नौ साल पूर्व इसी तीर्थभूमि में एक ग्रीष्मकालीन ज्ञानसत्र का आयोजन हुआ था। २१ दिन का वह आयोजन था। स्कूल-कालेज के १२५ छात्र उस ज्ञानसत्र में सम्मिलित हुए थे। उनको नैतिक-धार्मिक और आध्यात्मिक शिक्षा दी गई थी। वह ज्ञानसत्र हर दृष्टि से सफल रहा था।
इस पहाड़ पर कोई गाँव बसा हुआ नहीं है। नौ साल से पहाड़ पर सड़क बन जाने से बसें मंदिर के द्वार तक पहुँचती हैं। यात्रियों की चहल-पहल बनी रहती है। 'तारंगा हिल' स्टेशन है। स्टेशन पर भी जैन धर्मशाला है और धर्मशाला में छोटा-सा मंदिर है।
उत्तर गुजरात में आया हुआ यह भारत के श्रेष्ठ जैन तीर्थों में से एक तीर्थ है। इस तीर्थ में इस समय आठ दिन रुकने का धन्य अवसर मिला | परमात्म
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