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जिंदगी इम्तिहान लेती है
९७ ® प्रेम की यथार्थ अभिव्यक्ति परमात्मा के प्रति समर्पण में ही समाहित है। 8 ज्यों-ज्यों आत्मा का परमात्मा के साथ तादात्म्य बढ़ता है... त्यों-त्यों दिव्य
अनुभूतियों का आलोक उतरने लगता है, आत्मा की अवनि पर! ® कभी श्रमण भगवान महावीर के साथ घटी ग्वाले के द्वारा कानों में कील ठोंकने की घटना के बारे में गहराई से सोचा है? उस पीड़ा की अनुभूति
महसूस की है? गहराई में उतरने पर यह संभव हो सकता है। ॐ परमात्म-समर्पण का रास्ता जितना भावुक एवं भावनाशील हृदय के लिए
है... उतना तर्क-वितर्क की जाल में फंसे हुए बुद्धिजीवियों के लिए नहीं है! ® ध्यान खंड में, भावों के आलोक में परमात्मा से मिलन शक्य होता है! ठीक है, शुरू-शुरू में वह मिलन बिजली के कौंधने जैसा ही क्यों न हो? पर होता जरूर है।
पत्र : २२
CA
प्रिय मुमुक्षु!
धर्मलाभ, तेरा पत्र पढ़ते-पढ़ते हृदय गदगद हो गया। परमात्म-मिलन की तीव्र अभीप्सा से तेरी चेतना का ऊर्चीकरण हो रहा है। परमात्मप्रीति ही प्रेम की यथार्थ अभिव्यक्ति है। 'प्रेम' विश्व की शाश्वत यथार्थता है। मानव ने उस 'प्रेम' के स्वरूप को विकृत करके रख दिया है। प्रेम में संकीर्णता, क्षणिकता, क्षुल्लकता और मोहान्धता की विकृतियाँ प्रविष्ट हो गई हैं। इन विकृतियों से मुक्त 'प्रेम' विश्व में बहुत-बहुत कम लोगों में पाया जा सकता है। ___ समग्रता से परमात्मा के प्रति प्रेम कर लेना जरूरी है। परमात्मा के लिए ही जीवन है... परमात्मा के लिए ही अपना हृदय है, परमात्मा के लिए ही अपने तन-मन हैं, यह निर्णय कर लेना चाहिए । 'प्रेम का विशुद्धीकरण करना होगा | ज्यों-ज्यों प्रेम का विशुद्धीकरण होता जाएगा, त्यों-त्यों उसका ऊर्वीकरण होता चलेगा, साथ-साथ चेतना का भी ऊर्चीकरण होता जाएगा।
उपास्य से उपासक का, आराध्य से आराधक का ज्यों-ज्यों तादात्म्य बढ़ता जाता है, त्यों-त्यों उपासक अगम-अगोचर दिव्य अनुभूतियाँ करता है! उसकी
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