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हावा
प्रवचन-७८
- संयोग या पुण्योदय प्राप्त होने से क्या? यदि हम पुरुषार्थ- नहीं करेंगे तो आत्मविशुद्धि की यात्रा आरंभ नहीं होगी।
जीवनशुद्धि की प्रक्रिया शुरू नहीं होगी। ० शुद्ध-अशुद्ध, असली-नकली पहचानने की क्षमता पैदा करनी होगी... कम-से-कम धर्म की बाबत में तो अत्यंत जरूरी है
यह। ० पेथड़शाह ने कितनी अद्भुत धर्मशासन को प्रभावना की
थी? उनका व्यक्तिगत जीवन भी उतना ही आराधनापूर्ण
था। ० जिनागम-जिनवाणी का श्रवण महान् पुण्योदय से प्राप्त
होता है। पेथड़शाह ने 'भगवती-सूत्र' का श्रवण गुरुमुख से
कैसे किया था, जानते हो? ० आत्मचिंतन कोई बहुत ज्यादा कठिन नहीं है... सरल है। बस
भीतर में मुड़ना सीखें... आत्मा में देखना सीखें। ० सत्संग का रंग बड़ा गहरा होता है। एक बार बस, लग
जाना चाहिए! =० संत समागम सदा सुखकारी।'
rel प्रवचन : ७८
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परम कृपानिधि, महान् श्रुतधर आचार्य श्री हरिभद्रसूरिजी, स्वरचित 'धर्मबिन्दु' ग्रन्थ में, गृहस्थ जीवन के सामान्य धर्मों का प्रतिपादन करते हुए चौबीसवाँ धर्म बताते हैं - व्रतधारी और ज्ञानी महापुरुषों की सेवा। ___ महाव्रतों से जिन्होंने अपनी आत्मा को अनुशासित किया हो और शास्त्रज्ञान एवं आत्मज्ञान से जिन्होंने दिव्यदृष्टि प्राप्त की हो, वैसे महापुरुषों का योग-संयोग मिलना सरल नहीं है। महान् भाग्योदय हो, तब ही ऐसा संयोग मिलता है। संयोग भी, पुरुषार्थ भी :
संयोग प्राप्त होता है पुण्यकर्म के उदय से, संयोग का लाभ उठाया जाता है आत्मजाग्रति से । संयोग तो कभी तीर्थंकर भगवंत का भी मिल जाय, परन्तु आत्मा जाग्रत नहीं हो, मोहनिद्रा में पड़ी हो, तो संयोग का लाभ नहीं उठा
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